Monday, January 21, 2019

जीआई टैग पाने वाली पहली मिठाई बनी नालंदा का सिलाव खाजा

रविशंकर उपाध्याय4पटना.
नालंदा का सिलाव का खाजा जीआई टैग यानी जियोग्राफिकल इंडिकेशन टैग पाने वाली पहली मिठाई हो गयी है. जीआई टैग के क्षेत्र में बिहार के मिठाईयों की यह पहली औपचारिक इंट्री है. अभी तक बिहार के हस्तकरघा उद्योगों और कतरनी धान-मगही पान को ही जीआई टैग मिला है जिसमें मधुबनी पेंटिंग, भागलपुरी सिल्क, सुजनी और खतवा कला जीआइ टैग से युक्त उत्पाद शामिल हैं. सिलाव खाजा औद्योगिक स्वावलंबी सहकारी समिति के आवेदन पर चेन्नई स्थित जियोग्राफिकल इंडिकेशंस रजिस्ट्री ने 11 दिसंबर को जीआई टैग प्रदान किया है. बिहार के कला व संस्कृति विभाग द्वारा 2017 में तीनों मिठाईयों को जीआई टैग दिलाने के लिए प्रक्रिया शुरू हुई थी. इसके लिए बिहार विरासत विकास समिति को जिम्मेवारी दी गयी थी. विरासत विकास समिति ने इसके लिए कागजी काम पूरा किया था. डॉक्यूमेंटेशन में बताया गया था कि 1872-73 में ब्रिटिश आर्कियोलॉजिस्ट जेडी बेगलर ने इसका उल्लेख किया था और इसे मिठाईयों का राजा बताया था. इस मिठाई का प्रयोग महात्मा बुद्ध द्वारा करने के भी दस्तावेज प्रस्तुत किये गये थे.
किसी उत्पाद की पहचान बताने वाली ग्लोबल टैगिंग है जीआई
जीआई यानी जियोग्राफिकल इंडिकेशन किसी उत्पाद की पहचान बताने वाली ग्लोबल टैगिंग होती है. जो इसके अधिकृत मालिक या प्रयोगकर्ता को जीआई के टैग लगाने का कानूनी अधिकार प्रदान करता है. गैर-अधिकृत व्यक्ति इसका प्रयोग नहीं कर सकता. जीआई टैग को ‘विश्व व्यापार संगठन’ से भी संरक्षण मिलता है. हर उत्पाद की विशिष्ट पहचान में उसका उद्भव, उसकी गुणवत्ता, प्रतिष्ठा तथा अन्य विशेषताएं शामिल होती है. जीआई दो प्रकार के होते हैं. पहले प्रकार में वे भौगोलिक नाम हैं, जो उत्पाद के उद्भव के स्थान का नाम बताते हैं जैसे दार्जिलिंग चाय आदि. दूसरे  गैर-भौगोलिक पारंपरिक नाम, जो यह बताते हैं कि उत्पाद किसी एक क्षेत्र विशेष से संबद्ध है.
''बिहार विरासत विकास समिति ने किया था डॉक्यूमेंटेशन''
हमें अभी तक औपचारिक नोटिफिकेशन नहीं मिला है लेकिन अनौपचारिक सूचना मिल चुकी है. सिलाव का खाजा जीआई टैग से जुड़ने वाली पहली मिठाई बन गयी है. हमें खुशी है कि हमने इसका डॉक्यूमेंटेशन किया था. जीआइआर के दिल्ली और चेन्नई के अधिकारियों के साथ कोलकाता में हुई बैठक में इसपर औपचारिक सहमति 2017 में हो गयी थी.
-विजय कुमार चौधरी, एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर, बिहार विरासत विकास समिति

गर्मी आते ही बिहार के हर घर का जायका होता है चरौरी-तिसीऔरी-बड़ी

रविशंकर उपाध्याय4पटना
टेस्ट ऑफ बिहार में हमारी कृषि का योगदान सबसे अधिक है. इस कारण अपने बिहार में इस मौसम में शायद ही कोई घर ऐसा हो जहां चावल, तीसी और चना का बड़ी नहीं बनता हो. गर्मी आने के पहले हमारे घरों में चावल, चना और तीसी आ जाता है और इसका स्वाद हमारे जायकों में हो इसके लिए हमारे घरों की माताएं-बहनें जुट जाती है. कहीं चावल को गर्म कर कड़ाहों में खौला कर चरौरी बनाया जाता है तो कहीं तीसी और मसूर दाल को मिला कर तिसीऔरी बनाया जाता है. इसके अलावा चना से बनने वाला बड़ी तो एवरग्रीन है ही. इस सप्ताह हम इन्हीं तीनों जायकों का स्वाद जानेंगे. चावल को पानी में गर्म कर गाढ़े तक पिघलाकर बनाया जाने वाला चिप्स ही चरौरी है. जब चावल पूरी तरह गर्म होकर पानी के साथ मिल जाता है तो इसमें नमक मिलाकर सादा चरौरी सफेद और साफ चादर पर धूप में बनाया जाता है.
ऐसे बनती है तिसीऔरी
वहीं तिसीऔरी तीसी से बनने वाला बिहार का मशहूर व्यंजन है. जिसमें तीसी के अलावा मसूर दाल,  धनिया पावडर, लाल मिर्च पावडर, जीरा पावडर, हल्दी पावडर, नमक की आवश्यकता होती है. तीसी को धोकर छान लिया जाता है. मसूर दाल को पीस लिया जाता है. इसे तीसी में मिला दिया जाता  है.  नमक, हल्दी पावडर, अजवाईन, मंगरैला, जीरा पावडर और लाल मिर्च पाउडर डाल लिया जाता है. इसके बाद नमक स्वाद के अनुसार डाल दिया जाता है. इसे अच्छी तरह मिक्स कर लिया जाता है. एक थाली लेंगे और फिर उस पर बड़ी यानी छोटे साइज का बनाया जाता है. इसे कड़ी धूप में सूखा लिया जाता है. इसके बाद इसे तेल में छान लिया जाता है.
चना दाल की बड़ी
चना दाल को साफ करके अच्छी तरह धोकर 5,6 घंटे के लिये भिगो कर रख दें. मैथी दाना व जीरा को हल्का भून कर पीस लें. भीगी हुई दाल को एक बार फिर धोकर अतिरिक्त पानी निकाल दें अौर मिक्सर में दाल को बिना पानी डाले मोटा दरदरा पीस लें. दाल पीसते समय ही उसमें अदरक व लाल हरी मिर्च डाल कर पीस लें. अब पिसी हुई दाल को किसी बडे बरतन में रख लें हींग, पिसा अदरक, मिर्च, भुना मैथी पावडर व जीरा पावडर मिला कर हाथ से अच्छी तरह ख़ूब फैंटें. चना दाल की बडियां छोटे साईज़ की बनाई जाती है इसलिये छोटी छोटी बडियां बनाये तो जल्दी सूखेंगीं अौर सब्जी बनाने मै भी सहूलियत रहेगी. बडी बनाने के लिये अाप साफ जगह पर धूप में सफ़ेद कपड़ा बिछा लें या बडी परात को पलट कर उसके ऊपर कपड़ा बिछा कर हाथ में पानी लगा कर फैटी हुई चना दाल की लोई लेकर अंगूठा व उगली की सहायता से गोल गोल बडी कपडे पर तोड़ कर सारी बडियां बना दें फिर दो दिन तक इसी तरह सुखायें फिर दो दिन के बाद बडियों को कपडे से निकाल कर दो दिन अौर सुखायें. सभी बड़ियों को 3, 4 दिन तेज धूप में अच्छी तरह सुखा कर हवा बंद डिब्बे में भर कर रखें. बडी बन कर तैयार हैं. बडियां बना कर अाप एक साल तक रख सकते हैं. चना दाल बडी की सब्जी बहुत ही स्वादिष्ट व पौष्टिक होती हैं. 

Friday, November 30, 2018

सोनपुर मेला: सात दिन, सात विदेशी सैलानी और सात बिहारी जायका


-विदेशी टूरिस्टों को भा रहे बिहारी स्वाद, तवा रोटी और लिट्टी चोखा कर रहे पसंद 
रविशंकर उपाध्याय®सोनपुर 
सोनपुर के पर्यटक ग्राम में सात दिनों में पहुंचे सात सैलानियों को बिहार के सात जायके खूब पसंद आये हैं. वे ना केवल तवा राेटी को पसंद कर रहे हैं बल्कि दाल-भात और सब्जी, लिट्टी चोखा, मखाने की खीर, गुलाबजामुन और बालूशाही का स्वाद भी उन्हें खूब भा रहा है. सात दिनों में यासुनारी नाकामुरा, योजो ओकामोटो, फुकीनो अदाची, हाजीमी ताशीरो, यूकियो वातानाबे, तकानो ओनिशी, माकिको मात्सुदा ने यह सभी स्वाद चखे हैं. विजिट बिहार के एमडी प्रकाश चंद्र यहां आहार नामक रेस्टोरेंट चलाते हैं. वे कहते हैं कि बिहारी स्वाद उन्हें खूब पसंद आया. सूप और नूडल्स के नाश्ते के बाद उन्होंने रोटी वह भी तवा वाला पसंद किया था. चावल प्लेन भी लिया और पीली दाल के साथ पुलाव भी खाया. वे मछली साथ में लाये थे. इंस्टैंट फूड की तरह. सब्जी और चिकेन कढ़ी के साथ मंचूरियन, पालक पनीर का भी स्वाद लिया. पर्यटन विभाग द्वारा तैयार स्वीस कॉटेज के प्रभारी प्रबंधक सुमन कुमार और सहायक प्रबंधक दीपक कुमार बताते हैं कि इस बार विदेशी सैलानियों की संख्या बहुत कम है. पिछली बार 24 विदेशी सैलानी और 16 देसी सैलानी आये थे. वहीं 2016 में 106 पर्यटक आये थे जिसमें 75 फीसदी विदेशी थे. जापान से सबसे ज्यादा, इटली, नीदरलैंड और यूरोप के सैलानी यहां आते हैं. शुरुआती दो सप्ताह में ही विदेशियों की आमद होती है उसके बाद वे नगण्य हो जाते हैं. यानी उनकी मानें तो इस बार पर्यटन विभाग के लिए पिछला आंकड़ा बरकरार रखना एक बड़ी चुनौती से कम नहीं है. 

100 साल से यूपी के बहराईच से आ रहे पापड़ी मिठाई निर्माता
सोनपुर मेले में मुख्य बाजार से चिड़िया बाजार रोड पर पश्चिम दिशा में बढ़िए तो यहां यूपी के बहराइच के कई पापड़ी वाले दिखाई देंगे. यह पापड़ी की कई वैराइटी के साथ-साथ हलवा पराठा और मियां मिठाई बेचते हैं. इन सारी मिठाईयों का यहां शतक वर्ष चल रहा है. बहराइची हलवा-पराठा ऐसे कि देखते ही जी ललच जाए. दाम 140 रुपये किलो. बेसन की स्पेशल पापड़ी 80 रुपये किलो और खजूर की पापड़ी भी इतनी ही कीमत में. बहराइच और उसके आसपास के दो दर्जन से अधिक बुजुर्ग युवक मेले में हलवा-पराठा बेच रहे हैं. बहराइच से आये वारिस अली जिनकी उम्र 75 साल है वे कहते हैं कि दो पुश्त से वे यहां आ रहे हैं. उनकी उम्र ही निकल गयी इसके पहले इनके पिता और दादा भी सोनपुर आते थे. इनके अलावा बहराइच के तीन और परिवार यहां इस कारोबार के लिए पहुंचते हैं.

झारखंडी अचार ला देगा मुंह में पानी 
सोनपुर मेले में झारखंड के विभिन्न शहरों से आये लोग आपके मुंह में पानी ला देंगे. इसका कारण यह है कि यहां पर 20 तरह के अचार मिल जायेंगे. आपको आंवले का पंसद है या ओल का? बांस का या फिर आम का? सभी मिला कर चाहिए तो वह भी हाजिर है. कीमत है 120 रुपये किलो से लेकर 150 रुपये तक. इस कीमत में आपके लिए गोड्डा, साहेबगंज, चतरा और दुमका से पहुंचे अचार के स्पेशल विशेषज्ञ मुंह खट्टा कराएंगे. दुमका जिले के बासुकीनाथ से आये रामानंद मंडल कहते हैं कि आप जो भी अचार चाहेंगे मिल जायेगा. हमारे पास कम से कम अचार और मुरब्बे के एक दर्जन से ज्यादा वेराइटी रहती है. गोड्डा के राकेश कहते हैं कि पहले तो वह इलाका भी बिहार ही ना था. यहां आकर कभी अलग नहीं लगता है. आपसी सद्भाव व भाईचारे में इस मेले जैसी कहीं कोई संस्कृति नहीं. लगता ही नहीं कि हम अपने घर से बाहर हैं.

Saturday, November 17, 2018

टेस्ट ऑफ बिहार: आद्रा नक्षत्र में हर दिल अजीज दालपूरी, आम और खीर

रविशंकर उपाध्याय4पटना. 
जेठ महीने में जब सूरज आंखे तरेर रहे हैं, लोग बाग परेशान हैं तो वैसे में आद्रा नक्षत्र का प्रवेश कई उम्मीदें जगाता है. आद्र से बना आद्रा नक्षत्र बहुत कुछ अपने साथ लेकर आता है. बिहार में मॉनसून के आने का समय होता है, बरखा रानी की आहट गर्मी की तपस को कम करती है और किसान फसल का पूर्वानुमान कर लेते हैं. यह मौसम बिहार के खास जायके का भी होता है. इस नक्षत्र में बिहार के घर-घर में बहुत कुछ खास बनता है. यदि आप बिहारी हैं तो आद्रा आते ही आपको जरूर याद आता है दालपूरी, खीर और आम का. हर घर में इस नक्षत्र में दाल की पूरी बनेगी ही बनेगी. दालपुरी के साथ खीर बनता है और अभी बाजार के साथ हर घर में तो रसीले आम हैं ही. बिहार का मालदह और जर्दालु आम इस टेस्ट को खांटी बिहारी बना देता है. इसके साथ आलू की रसेदार सब्जी जायके को बेहद खास बना देती है.
सैंकड़ों सालों से जारी है परंपरा, बारिश का जायके से सम्मान
बिहार में आद्रा नक्षत्र के दौरान इस खास जायके को बनाने और खाने की परंपरा सैंकड़ों सालों से अनवरत जारी है. यह हमारी उत्सव धर्मिता को भी बयान करता है. जानकार बताते हैं कि इस नक्षत्र के दौरान बारिश का आगमन हो जाता है. बिहार की संस्कृति में बारिश बेहद महत्व रखती है. बारिश के आगमन से ना केवल बिहार की उर्वर भूमि पर बेहतरीन कृषि कार्य की संभावना बलवती होती है बल्कि बारिश को लगातार बनाये रखने के लिए भी घरों में दालपूरी, खीर और आम बनाया जाता है. इंद्रदेव को भोग लगाने के बाद इसे घरों में सपरिवार खाया जाता है. उनसे कामना की जाती है कि बरसात यूं ही हमारे यहां होती रहे ताकि बेहतर कृषि की पूंजी से समाज रोशन होता रहे. 

सिंगापुर नहीं नवगछिया ब्रांड है सिंगापुरी केला

रविशंकर उपाध्याय®पटना.
अभी पटना हो या छपरा, बिहारशरीफ हो या मनेर शरीफ. बिहार में हर जगह आपको सिंगापुरी केले मिल जायेंगे. छिलका हरा लेकिन केला पका हुआ. इतना बड़ा कि चार केले खा लें तो फिर कुछ और खाने की इच्छा नहीं हो. पोषण भी और स्वास्थ्य भी. लेकिन क्या आपको पता है कि सिंगापुरी नामक यह केला कोई सिंगापुर से नहीं आया है. बल्कि यह ठेठ बिहारी ब्रांड केला है. पटना उद्यान विभाग के सहायक निदेशक अजीत कुमार यादव कहते हैं कि सिंगापुर नाम कैसे आया इस पर मुकम्मल शोध की आवश्यकता है. दरअसल यह वेराइटी हरी छाल कही जाती है जिसमें रोबेस्ट्रा, जी नाइन, कैवेंडिस के साथ ही सिंगापुरी आदि किस्म आती है. संभवत: लोगों ने इसके बड़े साइज को लेकर इसका नाम सिंगापुरी केला रख दिया गया.

भागलपुर के नवगछिया सब डिविजन में तुलसीपुर गांव में शुरू हुआ 
भागलपुर के नवगछिया सब डिविजन के तुलसीपुर गांव में सिंगापुरी केला की खेती पचास साल पूर्व शुरू हुई थी जो धीरे धीरे ब्रांड बन गया. यह केला बराड़ी के बाद हल्का, पूर्णिया, मधुबनी, सहरसा से खगड़िया और उसके बाद पूरे बिहार में फैल गया. उद्यान निदेशक कहते हैं कि शुरूआत में सिंगापुरी केला इतना लंबा और मोटा नहीं होता था. लेकिन बाद में बड़ा साइज आने लगा. जो रोबस्ट्रा है. अभी पश्चिमी चंपारण, पूर्वी चंपारण, समस्तीपुर, खगड़िया, कटिहार, भागलपुर, पूर्णिया, वैशाली, नालंदा, सहरसा, बेगूसराय और पटना तक में इस प्रजाति के केले की खेती होती है. हाजीपुर, मुजफ्फरपुर, वैशाली के बाद नवगछिया तक इस केले की खेती में काफी आगे बढ़ चुका है. यहां पर रोबेस्ट्रा और जी 9 नस्ल के बीज भी मौजूद हैं. यह केला कच्चा सब्जी बनाने के अलावा आटा बनाने तथा चिप्स बनाने के काम में आते हैं. सिंगापुरी के अलावे हमारे यहां हाजीपुर का चीनिया केला, कोसी इलाके का मानकी, किशनगंज जिले का मालभोग केला लोगों के स्वाद में बस चुका है.

तीखा नहीं बड़ा मीठा है बेतिया का मिर्चा चूड़ा



रविशंकर उपाध्याय®पटना.
बेतिया पश्चिमी चंपारण जिले का मुख्यालय है जो भारत-नेपाल सीमा पर स्थित सबसे बड़े शहरों में से एक है. 'बेतिया' शब्द 'बेंत' से उत्पन्न हुआ है जो कभी यहां बड़े पैमाने पर उत्पन्न होता था लेकिन अब यह नगर बेंत से नहीं जाना जाता है. बेतिया नाम आते ही यदि कुछ सबसे पहले याद आता है तो वह है बेतिया राज, महाराजा का भव्य महल और बेहद प्रसिद्ध मिर्चा चूड़ा. भले ही इसके नाम मिर्चा हो लेकिन इसका स्वाद बेहद मीठा है. अंग्रेजी काल में बेतिया राज दूसरी सबसे बड़ी जमींदारी थी जिसका क्षेत्रफल 1800 वर्ग मील थी. कहते हैं इससे उस समय 20 लाख रुपये लगान मिलता था. हरहा नदी की प्राचीन तलहटी में स्थित इस शहर में महात्मा गांधी ने बेतिया के हजारी मल धर्मशाला में रहकर सत्याग्रह आंदोलन की शुरुआत की थी.
चूड़ा के दो ही बिहारी ब्रांड मिर्चा चूड़ा और कतरनी
यह तो हम सब जानते हैं कि बिहार में धान की खेती बड़े पैमाने पर होती है और भागलपुरी कतरनी के साथ ही बेतिया का मिर्चा चूड़ा बेहद प्रसिद्ध है. बेतिया के नौतन, मझौलिया, चनपटिया, नरकटियागंज, सिकटा, मैनाटांड़, रामनगर व बगहा समेत दोन क्षेत्र में मिर्चा धान की बंपर पैदावार होती है और इसके बाद यहां का मिर्चा चूड़ा पूरे प्रदेश में अपनी खुशबू बिखेरता है. मिर्चा धान बेतिया क्षेत्र का सबसे पसंदीदा धान है. भले ही इसके उत्पादन को लेकर नये नये प्रयोग चल रहे हैं पर आज भी देश-विदेश में रहने वाले लोग जब वापस आते हैं तो बेतिया से मिर्चा चावल और चूड़ा जरूर ले जाते हैं. दूरदराज में रहने वाले परिजन भी त्योहार व महत्वपूर्ण अवसरों पर अपने संगे-संबंधियों से उपहार के रूप में मिर्चा चूड़ा व चावल की मांग करते हैं. इससे यह सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि मिर्चा की सुगंध व स्वाद के प्रति लोगों में कितना आत्मीय लगाव है.

सुगंध और स्वाद ही है रोहतास के सोनाचूर चावल की पहचान

सोनाचूर चावल 
रविशंकर उपाध्याय®पटना.
बिहार के रोहतास जिले का नाम भले ही सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र के पुत्र रोहितेश्वर के नाम पर रखा गया हो लेकिन 1857 तक जिला का एक बहुत ही अनजान इतिहास था. बाबू वीर कुंवर सिंह ने 1857 के विद्रोहियों के साथ ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह किया. कुंवर सिंह के अधिकांश विवरण वर्तमान भोजपुर जिले से संबंधित है हालांकि इस विद्रोह का प्रभाव पड़ा और यहां वहां विद्रोह जैसी घटनाएं उत्पन्न हुई. जिले के पहाड़ी इलाकों ने विद्रोह के भगोड़ों को प्राकृतिक संरक्षण प्रदान किया. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भोजपुर जिले का भारत की स्वतंत्रता आंदोलन में पर्याप्त योगदान था. आजादी के बाद रोहतास शाहबाद जिले का हिस्सा बना रहा लेकिन 1972 में रोहतास एक अलग जिला बना. इन सबके बीच यहां का एक स्वाद लगातार बना रहा जो धरती से जुड़ा है. धान का कटोरा कहे जाने वाले इस जिले रोहतास के सोनापुर चावल को जिसने भी खाया है वह खासियत जानता है. इसे ना केवल स्वाद और सुगंध का राजा कहा जाता है बल्कि अपनी खास कीमत के कारण इस किस्म को किसानों का एटीएम भी कहा जाता है.
सोनाचूर चावल 
रोपनी के समय से ही आने लगती है खुशबू
बिक्रमगंज थाने में नोनहर आदर्श गांव के रहने वाले विश्वंभर भट्ट बताते हैं कि सोनाचुर सुगंधित चावल है. महीन चावल है. आपको बताएं कि जब इसकी रोपनी होती थी तो बिचड़ा के समय से ही सुगंध आना शुरू हो जाता था. खेत के इर्द गिर्द दस फीट का क्षेत्र सुगंधित होना शुरू हो जाता था. रोहतास के बिक्रमगंज क्षेत्र के साथ ही नटवार, दिनारा, नटनोखा, काराकाट आदि क्षेत्र में अच्छी खेती होती है. वे कहते हैं कि अन्य धानों के मुकाबले कम उपज होती है, एक बीघा में यदि कतरनी 16 बोरा होगा तो सोनाचूर 12 बोरा होगा. लेकिन महंगा होने के कारण यह मेंटेंन कर जाता है. पूरे बिहार में सोनाचूर चावल की मांग तो होती ही है, इसका निर्यात भी किया जाता है.