पटना. धार्मिक
नगरी गया यूं तो देश में हिंदू धर्म की सबसे बड़ी तीर्थ स्थली है, जहां ना
केवल पितरों की आत्मा को शांति मिलती है बल्कि दुनिया भर में भगवान विष्णु
के पदचिह्न भी यहीं मिले हैं. कहते हैं विष्णु यहां गयासुर राक्षस का वध
करने पहुंचे थे, उसी वक्त उनके पदचिह्न उत्कीर्ण हो गये थे. गयासुर के नाम
पर ही इस शहर का नाम गया पड़ा जो अब भी बरकरार है. लेकिन गया की पहचान
बिहार के एक सबसे बेहतरीन स्वाद से जुड़ी हुई है. जो इस सर्दी में बिहार का
बहुत ही खास व्यंजन हो जाता है. जी हां सही पहचाना आपने तिलकुट. जो तिल
तथा चीनी या गुड़ से बनाया जाता है. गया एक तरह से तिलकुट का पर्याय भी
माना जाता है. अब जब गुलाबी सर्दी कड़ाके की ठंड में तब्दील हो रही है तो इस
मौसम में तिल की सौंधी खुशबू से आप गर्माहट महसूस कर सकते हैं. गया के
तिलकुट की शान ना केवल बिहार-झारखंड बल्कि देश विदेश तक है. गया में तिलकुट
के पुराने कारोबारी देवनंदन बताते हैं कि तिलकुट की कई किस्में होती हैं.
मावेदार तिलकुट, खोया तिलकुट, चीनी तिलकुट व गुड़ तिलकुट बाजार में मिलते
हैं.
150 साल पहले से गया में बन रहा तिलकुट
सर्वमान्य धारणा है कि धर्म नगरी गया में करीब डेढ़ सौ वर्ष पूर्व तिलकुट बनाने का कार्य प्रारंभ हुआ. गया के प्रसिद्ध तिलकुट प्रतिष्ठान श्रीराम भंडार के एक बुजुर्ग कारीगर रामेश्वर ने बताया कि गया के रमना मुहल्ले में पहले तिलकुट निर्माण का कार्य प्रारंभ हुआ था. वैसे अब टेकारी रोड, कोयरीबारी, स्टेशन रोड सहित कई इलाकों में कारीगर हाथ से कूटकर तिलकुट का निर्माण करते हैं. रमना रोड और टेकारी के कारीगरों द्वारा बने तिलकुट आज भी बेहद लजीज होते हैं. वे बताते हैं कि कुछ ऐसे परिवार भी गया में हैं, जिनका यह खानदानी पेशा बन गया है. खास्ता तिलकुट के लिए प्रसिद्ध गया का तिलकुट झारखंड, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र सहित अन्य राज्यों में भेजा जाता है.
हजारों लोगों का जुड़ा है रोजगार
अभी से ही गया की सड़कों पर तिलकुट की सौंधी महक और तिल कूटने की धम-धम की आवाज आ रही है. गया में हाथ से कूटकर बनाए जाने वाले तिलकुट बेहद खस्ता होते हैं. गया के तिलकुट के स्वाद का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दिसंबर व जनवरी महीने में बोधगया आने वाला कोई भी पर्यटक गया का तिलकुट ले जाना नहीं भूलता. एक अनुमान के मुताबिक, इस व्यवसाय से गया जिले में करीब सात हजार से ज्यादा लोग जुड़े हैं. स्थानीय लोगों के अनुसार, पहले तिलकुट व्यवसाय से तीन और व्यवसाय जिसमें ताड़ के पत्ते का दोना, बांस की बनी डलिया और लकड़ी का बक्सा और कागज का ठोंगा जुड़ा था. तिलकुट के साथ इन चीजों को इसलिए जोड़ा गया था, क्योंकि तिलकुट पर थोड़ा भी दबाव पड़ने पर वह चूर हो जाता था, परंतु अब इनकी जगह पॉलिथीन और कूट के डब्बे ने ले लिया है.
सर्वमान्य धारणा है कि धर्म नगरी गया में करीब डेढ़ सौ वर्ष पूर्व तिलकुट बनाने का कार्य प्रारंभ हुआ. गया के प्रसिद्ध तिलकुट प्रतिष्ठान श्रीराम भंडार के एक बुजुर्ग कारीगर रामेश्वर ने बताया कि गया के रमना मुहल्ले में पहले तिलकुट निर्माण का कार्य प्रारंभ हुआ था. वैसे अब टेकारी रोड, कोयरीबारी, स्टेशन रोड सहित कई इलाकों में कारीगर हाथ से कूटकर तिलकुट का निर्माण करते हैं. रमना रोड और टेकारी के कारीगरों द्वारा बने तिलकुट आज भी बेहद लजीज होते हैं. वे बताते हैं कि कुछ ऐसे परिवार भी गया में हैं, जिनका यह खानदानी पेशा बन गया है. खास्ता तिलकुट के लिए प्रसिद्ध गया का तिलकुट झारखंड, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र सहित अन्य राज्यों में भेजा जाता है.
हजारों लोगों का जुड़ा है रोजगार
अभी से ही गया की सड़कों पर तिलकुट की सौंधी महक और तिल कूटने की धम-धम की आवाज आ रही है. गया में हाथ से कूटकर बनाए जाने वाले तिलकुट बेहद खस्ता होते हैं. गया के तिलकुट के स्वाद का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दिसंबर व जनवरी महीने में बोधगया आने वाला कोई भी पर्यटक गया का तिलकुट ले जाना नहीं भूलता. एक अनुमान के मुताबिक, इस व्यवसाय से गया जिले में करीब सात हजार से ज्यादा लोग जुड़े हैं. स्थानीय लोगों के अनुसार, पहले तिलकुट व्यवसाय से तीन और व्यवसाय जिसमें ताड़ के पत्ते का दोना, बांस की बनी डलिया और लकड़ी का बक्सा और कागज का ठोंगा जुड़ा था. तिलकुट के साथ इन चीजों को इसलिए जोड़ा गया था, क्योंकि तिलकुट पर थोड़ा भी दबाव पड़ने पर वह चूर हो जाता था, परंतु अब इनकी जगह पॉलिथीन और कूट के डब्बे ने ले लिया है.
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