Monday, October 30, 2017

टेस्ट_ऑफ_बिहार : नहीं भूलेंगे बिहारशरीफ की टेढ़ी मेढ़ी झिल्ली का सौंधा स्वाद


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-एक बार चखे तो फिर मगध का यह स्वाद सीधे दिल में उतर जायेगा
पटना.

10वीं शताब्दी में पाल राजवंश की राजधानी रहा नालंदा जिले का मुख्यालय बिहारशरीफ अपने समृद्ध इतिहास के लिए जाना जाता है. बिहारशरीफ़ में जहां एक विशाल बौद्ध बिहार ओदंतपुरी के अवशेष हैं, यहां तंत्रशास्त्र का विश्वविद्यालय भी था. इसी शहर में सांप्रदायिक सौहार्द के प्रतीक हजरत मखदूम साहब की मजार भी यहीं है. जो बिहारशरीफ 65 वर्ष की आयु में आये और 122 वर्ष की उम्र तक यहां शोषित पीड़ित दलित मानव समुदाय की सेवा में जीवन लगा दिया. इसी शहर में बिहार के कई स्वाद भी जिंदा हैं. हम शुरूआत मैदा और बेसन से बनने वाली झिल्ली जिसे लट्ठो भी कहते हैं, इसी से करते हैं. झिल्ली का सौंधा स्वाद लोगों को खूब आकर्षित करती है. बिहारशरीफ से गुजरनेवाले स्वाद के शौकीन इस झिल्ली में उलझे बिना नहीं रह पाते हैं.
गुड़ के साथ ही भूरा का होता है प्रयोग
मेदा और बेसन से तैयार होने वाला झिल्ली या लट्ठो का पहले अंगुली के अाकार के टेढ़ा मेढ़ा शक्ल दिया जाता है फिर इसे गुड़ या भूरा में लपेटा जाता है. इसके पहले मेदा या बेसन को अच्छी तरह गुड़ या भूरा में रिफाइन ऑयल के साथ भूना जाता है फिर उसे आकार देकर गर्म किया जाता है और अंत में ठंडा करने के बाद परोसा जाता है. इसका स्वाद करारे भूने बेसन के साथ हल्का मीठा होता है जो बुनियादी तौर पर नाश्ते की मिठाई मानी जाती है. बिहारशरीफ में बरसों से झिल्ली बनाने वाले कारीगर संतोष कुमार कहते हैं कि यह मगध का बहुत पुराना स्वाद है. यहां चीनी की चासनी से भूरा बनाने की परंपरा भी काफी पहले से है जो केवल यहीं मिलती है और इसका विभिन्न किस्म का प्रयोग ही झिल्ली के रूप में सामने आया है.
बेसन की झिल्ली ज्यादा बेहतर, सौ रुपये में मिलता है एक किलो
बेसन की झिल्ली का स्वाद ज्यादा बेहतर होता है क्योंकि यह करारा होता है वहीं मैदा थोड़े वक्त के बाद मुलायम हो जाता है तो स्वादहीन हो जाता है. अभी सौ रुपये किलोग्राम मिलने वाली झिल्ली को आप एयरटाइट कंटेनर में रखकर दस से पंद्रह दिनों तक चला सकते हैं. यह सुबह के नाश्ते के साथ ही दोपहर और शाम में भी प्रयोग किया जाता है. बिहारशरीफ से बाहर गुड़ की झिल्ली मिलती है जो आपको राजधानी में पटना हाइकोर्ट के सामने की पुरानी दुकान में मिल जायेगी और बिहारशरीफ से आये कारीगर इसे एकाध जगह पटना सिटी में भी बनाते हैं.
http://epaper.prabhatkhabar.com/c/23302204
 

Saturday, October 21, 2017

नवादा के पकरीबरावां के बरा की कुरकुराहट के क्या कहने

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पटना
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नवादा के पकरीबरावां प्रखंड में मिलने वाली मिठाई 'बरा' की प्रसिद्धि बिहार के साथ ही देश के विभिन्न प्रदेशों तक है. इस मिठाई के साथ पकरीबरावां का नाम कुछ इस कदर जुड़ा है कि लोग मशहूर बरा के नाम पर इस कस्बे का नाम रखे जाने की बात बताते हैं. इस बाजार से गुजरने वाले पर्यटक हो या तीर्थयात्री इस मिठाई का स्वाद चखना नहीं भूलते. पकरीबरावां की अनोखी मिठाई बरा का समृद्ध इतिहास रहा है. स्थानीय लोग बताते हैं कि आजादी के पूर्व दुल्लीचंद नामक कारोबारी द्वारा इस मिठाई का निर्माण शुरू किया गया था. स्वादिष्ट व खास्ता होने के कारण इसकी लोकप्रियता बढ़नी शुरू हो गयी थी.
इससे एक मशहूर कहावत भी जुड़ी हुई है कि उस समय इस मिठाई पर अगर एक रुपये का सिक्का गिरा दिया जाये तो वह मिठाई टूटकर कई भागों में बिखर जाता था. इसकी पुष्टि इसी कारोबारी परिवार के रवि शंकर पप्पू करते हैं. अभी भी दुल्लीचंद के कई परिवार इस व्यवसाय से जुड़े हुए हैं. इसके साथ ही मुख्यालय में कई दर्जनों दुकानें हैं. बरा मिठाई के कारोबार ने यहां कुटीर उद्योग का रूप ले रखा है.
पहले राष्ट्रपति राजेन बाबू ने भी चखा था स्वाद
कई मशहूर हस्तियों द्वारा इस मिठाई का स्वाद चखा जा चुका है और इसकी प्रशंसा भी हो चुकी है. यहां के दुकानदार बताते हैं कि 1961 ई में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डाॅ राजेन्द्र प्रसाद ने नवादा-कौआकोल मार्ग से सेखोदेवरा आश्रम जाने के क्रम में यहां रूककर इस बरा मिठाई का स्वाद चखे थे. तब उन्होंने इस मिठाई की भूरी-भूरी प्रशंसा भी की थी. इसके साथ ही अब्दुल गफ्फार खां और लोकनायक जय प्रकाश नारायण सहित कई महान विभूतियों ने इसका स्वाद लिया था. अभी यह मिठाई मात्र 80 रुपये प्रति किलो बिकती है. बरा की पुरानी दुकान रस महल के मालिक रविशंकर पप्पू ने बताया कि इसके अलावा शुद्ध घी से मिलने वाली मिठाई 250 रुपये प्रति किलो बिकती है, इसे शुद्ध घी में बनाया जाता है. महंगाई की मार से अब यह मिठाई डालडा और रिफाइन तेल से बनाई जाती है. फिर भी यह मिठाई अन्य मिठाईयों से स्वादिष्ट और सस्ती है.

Friday, October 20, 2017

सबसे पहले ग्लोबल ब्रांड बनेगा सिलाव का खाजा, फिर मनेर के लड्डू औैर गया के तिलकुट की बारी

-अभी तक केवल मधुबनी पेंटिंग, भागलपुरी सिल्क, सुजनी और खतवा कला को मिला है जीआइ टैग
-अब बिहार की पहचान बन चुके इन तीनों मिठाईयों को जीआई टैग दिलाने की तैयारी
पटना
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 सिलाव का खाजा
अब बिहार की पहचान बन चुके तीन प्रमुख मिठाईयां ग्लोबल ब्रांड बनेंगे. नालंदा के सिलाव का खाजा, पटना के मनेर का लड्डू और गया के तिलकुट  को जीआई टैग यानी जियोग्राफिकल इंडिकेशन टैग दिलाने की तैयारी चल रही है. बिहार सरकार का कला व संस्कृति विभाग इन तीनों मिठाईयों को जीआई टैग दिलाने के लिए प्रक्रिया शुरू कर चुका है. इसके लिए बिहार विरासत विकास समिति को जिम्मेवारी दी गयी है. विरासत विकास समिति ने इसके लिए कागजी प्रक्रिया शुरू कर दी है. कोलकाता में जीआइआर के दिल्ली और चेन्नई के अधिकारियों से वार्ता भी हो चुकी है. अब कागजी प्रक्रिया को पूरी कर चेन्नई स्थित हेड ऑफिस को भेजने की तैयारी चल रही है. इसके तहत जीआई टैग के लिए सुप्रीम कोर्ट में एफिडेविट प्रस्तुत किया जायेगा. वहां से आपत्ति मांगी जायेगी और यदि आपत्ति नहीं आयी तो फिर इन तीनों मिठाईयों को जीआई टैग मिल जायेगा. जीआई टैग के क्षेत्र में बिहार के मिठाईयों की यह पहली औपचारिक इंट्री होगी. अभी तक बिहार के हस्तकरघा उद्योगों को ही जीआई टैग मिला है जिसमें मधुबनी पेंटिंग, भागलपुरी सिल्क, सुजनी और खतवा कला जीआइ टैग से युक्त उत्पाद हैं.

 मनेर के लड्डू
दार्जिलिंग चाय को सबसे पहले मिला था जीआई टैग
आसाम के दार्जिलिंग की मशहूर चाय भारत में पहला जीआई टैग उत्पाद 2004-05 में बना था. उसके बाद से मई 2017 तक इस सूची में कुल 295 उत्पाद शामिल हो गये हैं. जिसमें बिहार के चार हस्तकरघा उत्पाद शामिल हैं. भारत ने विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के सदस्य के रूप में भौगोलिक संकेतों का माल (पंजीकरण और संरक्षण) अधिनियम, 1 999 में लागू किया था.  यह कानून 15 सितंबर 2003 से प्रभावी है. जीआई को अनुच्छेद 22 (1) के तहत परिभाषित किया गया है. चेन्नई स्थित भौगोलिक उपदर्शन रजिस्ट्री (जीआइआर) जीआई टैग प्रदान करती है.
क्या है जीआई टैग?
 गया के तिलकुट
जीआई यानी जियोग्राफिकल इंडिकेशन किसी उत्पाद की पहचान बताने वाली ग्लोबल टैगिंग होती है. जो इसके अधिकृत मालिक या प्रयोगकर्ता को जीआई के टैग लगाने का कानूनी अधिकार प्रदान करता है. गैर-अधिकृत व्यक्ति इसका प्रयोग नहीं कर सकता. जीआई टैग को ‘विश्व व्यापार संगठन’ से भी संरक्षण मिलता है. हर उत्पाद की विशिष्ट पहचान में उसका उद्भव, उसकी गुणवत्ता, प्रतिष्ठा तथा अन्य विशेषताएं शामिल होती है. जीआई दो प्रकार के होते हैं. पहले प्रकार में वे भौगोलिक नाम हैं, जो उत्पाद के उद्भव के स्थान का नाम बताते हैं जैसे दार्जिलिंग चाय आदि. दूसरे  गैर-भौगोलिक पारंपरिक नाम, जो यह बताते हैं कि उत्पाद किसी एक क्षेत्र विशेष से संबद्ध है. जैसे- अल्फांसो, बासमती आदि. अधिकृत उपयोगकर्ताओं के अलावा किसी भी अन्य को लोकप्रिय उत्पाद नाम का उपयोग करने की अनुमति नहीं मिलती है. 
''सबसे पहले सिलाव के खाजा को मिलेगा जीआइ टैग''
सबसे पहले सिलाव का खाजा जीआई टैग से जुड़ेगा. इसके बाद मनेर के लड्डू सहित गया के तिलकुट जैसे व्यंजनों की बारी आयेगी. जीआइआर के दिल्ली और चेन्नई के अधिकारियों के साथ कोलकाता में हुई बैठक में इसपर औपचारिक सहमति हो गयी है. चेन्नई स्थित हेड ऑफिस को सभी जरूरी कागजात मुहैया कराने के लिए हम सब की तैयारी चल रही है. इसके बाद हमें जीआई टैग मिल जाएगा.
-विजय कुमार चौधरी, एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर, बिहार विरासत विकास समिति 
 http://epaper.prabhatkhabar.com/c/23072149

Saturday, October 14, 2017

पीएम मोदी ने चखा कचौरी-बालूशाही के साथ सिलाव का खाजा

-पीएम के भोजन की लिस्ट में टेस्ट ऑफ बिहार का रखा गया खास ख्याल
-पटना से मोकामा जाने के क्रम में पटना की मशहूर निमकी और चीनिया बादाम भी दिया गया
रविशंकर उपाध्याय, पटना

नमकीन कचौरी-बालूशाही के साथ सिलाव का मशहूर खाजा. इस बीच चना और चूड़ा के भूंजा के साथ चीनिया बादाम का भी टेस्ट और अंत में नारियल का पानी. प्रधानमंत्री मोदी की शनिवार को हुई बिहार यात्रा पर उनके नाश्ते और भोजन में बिहारी टेस्ट छाया रहा. उन्हें खास तौर पर बिहारी डिश पेश किया गया. हालांकि पटना एयरपोर्ट से विश्वविद्यालय जाने तक उन्होंने कुछ भी नहीं खाया लेकिन पटना से मोकामा हेलीकॉप्टर से जाने के क्रम में उनके साथ विशेष तौर पर सभी बिहारी डिश भेजे गये. जिसे उन्होंने रास्ते में चखा. जिला स्वास्थ्य विभाग की ओर से प्रधानमंत्री के लिए नाश्ते में जहां बिहारी स्वाद को प्रमुखता से रखा गया वहीं भोजन में फल और हल्के भोजन परोसे गये. पीएम को चाय और कॉफी के साथ अदरक जूस भी दिया गया.
साबूदाने और वेजिटेबल की खिचड़ी के साथ शकरकंद का अचार
प्रधानमंत्री के लिए भोजन की निगरानी करने वाले मुख्य डॉक्टर रजनीश ने बताया कि भोजन में तवा रोटी, मीठी पराठा, मटर का पुलाव और साबूदाने की खिचड़ी के साथ राजमा, कढ़ी, पनीर टिक्का, रोस्टेड गोबी-बिन्स, शकरकंद-आम का अचार, पापड़ और मीठे में राजभोग और मिल्क केक भी रखा गया था. ताजे फलों के साथ ही अमूल का छाछ और इलायची भी प्रधानमंत्री के खास पसंद के मद्देनजर मेनू में शामिल थे.
http://epaper.prabhatkhabar.com/c/22975594 

Monday, October 9, 2017

टेस्ट ऑफ बिहार-2 : गिरियक की रसभरी में डूब ना गये तो फिर कहिएगा

पटना. पटना-रांची हाइवे पर बिहारशरीफ और नवादा के बीच में एक छोटा सा कस्बा है, गिरियक. बिहारशरीफ से 19 किमी और नवादा से 17 किमी की दूरी पर स्थित यह प्रखंड मुख्यालय ऐतहासिक रूप से प्राचीन मगध साम्राज्य गिरिव्रज का हिस्सा रहा है, जिसका अपभ्रंश आज गिरियक हो गया है. वह गिरियक, जहां मगध के राजे रजवाड़े तफरीह करते हुए पंचाने नदी की कल कल बहती धारा देखने के लिए पहुंचते थे. बौद्धों के जमाने में यहां की पहाड़ी पर दुनिया का सबसे ऊंचा स्तूप भी बनाया गया था, जिसकी पहचान पांच छह साल पहले ही हुई है. इसके बाद यह कस्बा ऐतिहासिक रूप से इस वजह से याद किया जाता है क्योंकि 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में जन आंदोलन को दबाने के लिए अंग्रेज सरकार ने जिन दो जगहों पर पहली बार हेलीकॉप्टर से बम गिराया था उसमें इलाहाबाद के नैनी के बाद गिरियक भी शामिल था. उसी गिरियक की पहचान अब स्वादिष्ट रस भरी और रस मलाई के रूप में है. यहां की रसभरी इतनी खास है कि रोज हाइवे से गुजरने वाले स्वाद के शौकीन जरूर चखते हैं. आधा दर्जन मिठाई कारोबारी का फोकस रसमलाई और रसभरी पर है. 30 रुपये में दो रसभरी इतनी आनंदित कर देगी कि आप चार तो जरूर खाएंगे. आपके पास रसमलाई का भी ऑप्शन है जो 25 में दो आती है. यही नहीं यदि आप डायबिटीज की बीमारी से ग्रस्त हैं तो आपके लिए सुगर फ्री रसमलाई और रसभरी भी उपलब्ध है. केवल यह क्रमश: 40 और 30 रुपये में दो पीस आती है.
नहीं खरीदते हैं पैकेट वाला दूध, केवल गाय-भैंस के दूध का होता है प्रयोग

यहां के प्रसिद्ध आनंद मिष्ठान्न भंडार के ऑनर आनंद कुमार बताते हैं कि रसमलाई बनाने में कारीगर पैकेट के दूध का प्रयोग नहीं करते हैं. इसके लिए उन्होंने आसपास के विश्वसनीय दूध विक्रेताओं पर ही भरोसा करते हैं जो शुद्ध दूध मुहैया कराते हैं. उस दूध को वे केसर डालकर उबालते हैं. केसर के पीलापन आ जाने के बाद इसमें कम चीनी का प्रयोग करते हैं. इसके साथ ही जब छेना तैयार हो जाता है तो उसे ड्राइ फ्रूट डाल कर दोबार गर्म करते हैं. इसके कारण रसभरी काफी रसीली और स्वादिष्ट होती है जबकि रसमलाई में केसर और ड्राइफ्रूट का इस्तेमाल नहीं करते हैं बाकी यही तरीका होता है रस मलाई बनाने का. पूरे कस्बे में राेज लगभग 1000 पीस रसभरी और रसमलाई बिकती है जो कई बार बढ़कर 2000 भी हो जाता है.
राजगीर महोत्सव की शान बन चुका है रसभरी
यहां की रसभरी राजगीर महोत्सव की शान बन चुकी है. 2014 में तत्कालीन डीएम पलका साहनी ने इसे बेस्ट डिश ऑफ बिहार घोषित किया था. इसके विक्रेताओं को प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित भी किया गया था. राजगीर महोत्सव के अलावे नालंदा सृजन दिवस और पावापुरी मेडिकल कॉलेज में आयोजित स्वीट डिश फेस्टिवल में भी रसभरी का जलवा दिख चुका है. रसमलाई के विक्रेता रमेश कुमार कहते हैं कि अब हम इसका प्रसार राजधानी तक करने की रणनीति बना रहे हैं ताकि पूरा प्रदेश इसका स्वाद चख सके जो अभी केवल रांची-पटना हाइवे से गुजरने वाले लोगों को ही मुहैया हाे रही है.
http://epaper.prabhatkhabar.com/c/22775134