Saturday, January 27, 2018

स्वाद में बेहद रसीले, ये हैं बड़हिया के रसगुल्ले


टेस्ट ऑफ बिहार, पटना
बिहार के लखीसराय जिला स्थित बड़हिया कस्बे के नाम के पीछे की कहानी बड़ी दिलचस्प है. कहते हैं बड़ और हिया मिल कर बड़हिया बना है यानी जहां रहने वाले का हृदय बड़ा हो वही बड़हिया है. इस छोटे से कस्बे के लोगों की बहादुरी के किस्से बहुत चाव से सुनाते हैं. यहां की पहलवानी एक वक्त में शान हुआ करती थी और कई राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं का इस कस्बे ने सफल आयोजन कराया है. यह भी कहा जाता है कि जब वैद्यनाथ धाम मंदिर में गांधी जी के साथ हरिजन प्रवेश वाले कार्यकम को सफल बनाना था तो वहां भी बड़हिया के लोग बड़ी संख्या मे जाकर गांधी जी को जसीडीह स्टेशन से बाबाधाम मंदिर तक सुरक्षित प्रवेश दिलाने में अहम भुमिका निभार्इ थी. इसी बड़हिया में बड़े-बड़े रसीले रसगुल्ले बेहद खास हैं. शायद ही मगध का कोई गांव हो जहां अभी भी शादी-ब्याह और श्राद्ध आदि के कार्यक्रम में यहां के रसगुल्ले नहीं देखे जाते हैं.


पशुपालन मुख्य पेशा होने के कारण यहां बहती है दूध की नदी
बड़हिया में कृषि और पशुपालन मुख्य पेशा रहा है. हजारो एकड़ रकवा का टाल पशुपालन के भरपूर मौके उपलब्ध कराता है. इसी का परिणाम है कि यहां दूध की नदी बहती रही है. इस कारण हर दूसरे घर से दूध की खुशबू आती रहती है और इसी के साथ रसगुल्ले बनाते कारीगरों की टोली भी यहां की अर्थव्यवस्था की कहानी बताती रहती है. दूध की पर्याप्त उपलब्धतता के कारण यहां का छेना एक वक्त में प्रतीक बन गया और उससे बनने वाला रसगुल्ला भी लोकप्रियता के नये आयाम छूता रहा है. अब पटना जिले के बाढ़ से लेकर लखीसराय तक बड़हिया के रसगुल्ले ब्रांड की दुकान आप बेहद आसानी से देख सकते हैं जो राज्य के हरेक राजकीय समारोह का राजा बन चुका है.


Saturday, January 20, 2018

पिपरा का खाजा ऐसा कि मिले तो बस खा-जा



#टेस्ट ऑफ बिहार, पटना
अपने विशिष्ट स्वाद के लिए जाना जाने वाला सिलाव का खाजा तो आपने खूब खाया होगा लेकिन सुपौल के पिपरा का खाजा भी ऐसा कि मिले तो बस खा जा वाली फीलिंग आयेगी. देश की आजादी से पहले से यहां खाजा बनाने का काम चल रहा है. स्व. गौनी साह ने सबसे पहले यहां जागुर से आकर खाजा बनाने का कारोबार शुरू किया था. स्व. गौनी साह को पिपरा के खाजा मिठाई का आविष्कारक माना जाता है. जब पिपरा बाजार के स्वरूप में नहीं था. उस वक्त एक छोटा सा हाट दुर्गा मंदिर के बगल में पीपल पेड़ के नीचे लगाता था. उसी हाट पर स्व गेनी साह द्वारा शुद्ध घी का खाजा तैयार कर चार आने किलो बेचते थे. वहीं वर्तमान समय में शुद्ध घी का खाजा 200 से 240 रुपये किलो बिक रहा है. अब नेपाल सहित पूर्णिया, बेगूसराय, खगड़िया तक के व्यापारी यहां से खाजा खरीद कर ले जाते हैं. एक अनुमान के मुताबिक प्रतिदिन 10 क्विंटल से अधिक खाजा की बिक्री होती है. पर्वों के समय यह बिक्री डेढ़ गुना तक बढ़ जाती है.

 
शुरू में गोल-गोल बनाया जाता था खाजा, अब लंबाई पर फोकस
स्थानीय खाजा व्यवसायी बताते हैं कि शुरुआती दौर में गोल-गोल खाजा बनाए जाते थे. उसकी विशेषता होती थी कि अगर खाजा पर चवन्नी भी गिर जाए तो धंस जाती थी बाद में लंबा खाजा बनाना शुरू हुआ और लोगों की मांग पर खाजा को कड़ा किया जाने लगा. शुद्ध घी और रिफाइन दोनों से खाजा तैयार किया जाता है. रिफाइन वाला खाजा 80 रुपये और घी का खाजा 240 रुपये प्रति किलो बिकता है.
दिल्ली के प्रगति मैदान मेले की शान रह चुका है खाजा

 अपने विशिष्ट स्वाद व आकार को लेकर मशहुर पिपरा का खाजा की पहचान देश-विदेश में रही है. प्रगति मैदान से लेकर सोनपुर मेला या फिर पटना गांधी मैदान के सरस मेला में लगे पिपरा के खाजा के स्टॉल से इसकी स्वाद पूरे देश में फैली हुई है. साथ ही पड़ोसी देश नेपाल में भी इसकी मांग है. एनएच 106 व एनएच 327 ई क्रासिंग पर स्थित पिपरा बाजार की अर्थ व्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा खाजा मिठाई की बिक्री पर निर्भर करती है. सड़क से गुजरने पर लोग यहां का खाजा खरीदना व खाना पसंद करते हैं. खाजा बनाने वाले कारीगर से लेकर किराना दुकानदार तक की रोजी रोटी इससे जुड़ी हुई है.



Thursday, January 11, 2018

खोये और देसी घी का इश्किया=थावे गोपालगंज की पेड़किया


पटना.  

गोपालगंज जिला मुख्यालय से करीब छह किलोमीटर दूर सिवान जाने वाले मार्ग पर थावे में मां थावेवाली का एक प्राचीन मंदिर है. मां थावेवाली को सिंहासिनी भवानी, थावे भवानी और रहषु भवानी के नाम से भी भक्तजन पुकारते हैं. मान्यता है कि यहां मां अपने भक्त रहषु के बुलावे पर असम के कमाख्या स्थान से चलकर यहां पहुंची थीं. कहा जाता है कि मां कमाख्या से चलकर कोलकाता (काली के रूप में दक्षिणेश्वर में प्रतिष्ठित), पटना (यहां मां पटन देवी के नाम से जानी गई), आमी (छपरा जिला में मां दुर्गा का एक प्रसिद्ध स्थान) होते हुए थावे पहुंची थीं और रहषु के मस्तक को विभाजित करते हुए साक्षात दर्शन दिए थे. देश की 52 शक्तिपीठों में से एक इस विख्यात मंदिर के पास ही एक बेहतरीन स्वाद पेड़किया के रूप में मौजूद है. यहां दर्जनों पेड़किया की दुकान आपका स्वागत करेगी. इस खास बिहारी स्वाद में खोये और देसी घी का इश्किया मेल है.

दूध को जलाकर बनाया जाता है खोया इसके बाद डालते हैं देसी घी 

प्रसिद्ध गाैरीशंकर मिष्ठान्न भंडार के संचालक भगवान जी प्रसाद कहते हैं कि पहले हम दूध को खूब खौलाकर जलाते हैं और खोया बनाते हैं. इसके बाद मैदा और देसी घी से मिश्रण बनाते हैं और एक से डेढ़ घंटे में पेड़किया बनाते हैं. गौरी शंकर जी को गुजरे तो 40 साल हो गया लेकिन यहां उनकी तीसरी पीढ़ी कारोबार को आगे बढ़ा रही है. गौरीशंकर जी के नाती रिंकू बताते हैं कि चैत्र मेला से शुरू होने वाला इनका कारोबार सालों भर चलता है. इसकी प्रसिद्धि इतनी कि पटना में भी इसका ब्रांच खोलना पड़ा है. इतनी महंगाई के बाद भी 140 रुपये प्रति किलो के भाव में बहुत आसानी से यह खास स्वाद मिल जाता है. जो भी यहां पूजा करने के लिए पहुंचते हैं अपने साथ पेड़किया ले जाना नहीं भूलते. इलाके में आने वाले मेहमान हों या फिर कहीं दूर संदेश भेजना हो, यहां का गर्मागर्म पेड़किया ही पहली और अाखिरी पसंद है.


Saturday, January 6, 2018

खईब त बुझईतब कइसन हव बाढ़-धनरुआ के लाई!



-पटना जिले में है बाढ़ और धनरुआ, दोनों जगहों की लाई का स्वाद है बेहतरीन
पटना.

पटना जिले के बेहतरीन स्वाद का जिक्र करें और उसमें अपनी लाई ना शामिल हो, ऐसा हो ही नहीं सकता. पटना का अनुमंडल बाढ़ और धनरुआ कस्बे की लाई बड़ी प्रसिद्ध है. अगर आप पटना से गया की ओर जा रहे हैं तो धनरूआ और पटना से मोकामा की ओर जा रहे हैं तो बाढ़. दोनों रास्ते से गुजरने वाले यहां के खोये और मावे की लाई ज़रूर चखते हैं. बाढ़-धनरूआ की खोये और लावा की लाई इतनी लाजवाब है कि इसकी मिठास आपको काफी दिनों तक याद रहेगी. बाढ़ और धनरूआ में मुख्य रूप से मिलने वाली इस लाई की मांग दूसरे राज्यों तक है. करीबन 20 सालों से लाई बेच रहे दुकादार सुभाष राय बताते हैं कि यहां लोग संदेश के रूप में लाई मिठाई को अपने सगे-संबंधियों को भेंट स्वरूप देते हैं। इस रास्ते से गुज़रने वाले ज्यादातर लोग इस मिठाई को अपने परिवार वालों के लिए ले जाते हैं. यहां लाई की मांग इतनी ज्यादा है कि अब दूसरे राज्यों में भी लोगों ने इस बनाना शुरू कर दिया है.
बाढ़ में सौ साल पहले रामदहीन साव ने शुरू किया था कारोबार
लाई का स्वाद है बेहतरीन
बाढ़ के चोन्दी पर रामदहीन साव के दुकान से 100 साल पहले लाई बनाने की शुरूआत हुई थी. इसके बाद धीरे धीरे इसे उद्योग का रूप ले लिया. कम से कम 50 दुकान से ज्यादा तो केवल बाढ़ में है. यहां रामदहीन साव की तीसरी पीढ़ी काम कर रही है. अभी भी पुराने जानकार रामदहीन साव के यहां से जाकर लेते हैं. बाढ़ के प्रसिद्ध दुकानदार ओपी सिंह, जेपी सिंह और जलेश्वर सिंह कहते हैं अभी मावा की लाई 200-240 रुपये प्रति किलो मिलता है. इसके साथ ही सामान्य लाई 140 रुपये से 300 रुपये किलो की दर में मिलता है. कच्चा लावा का लाई महंगा होता है वह 280-300 के आसपास मिलता है. बाढ़ की लाई के कद्रदान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राजद प्रमुख लालू प्रसाद भी रहे हैं.
धनरुआ की रामदाना लाई है शानदार
पटना-गया हाइवे के बीच स्थित धनरूआ के एक लाई दुकानदार सुभाष राय ने यहां की प्रसिद्ध मिठाई लाई का बखान करते हुए कहते हैं- ‘‘हमारी यहां की लाई को खाने के लिए बहुत दूर-दूर से लोग आते हैं. वो खुद तो खाते ही हैं, अपने रिश्तेदारों और दोस्तों के लिए भी पैक करा कर ले जाते हैं. आप भी यह रामदाना नाम से विश्व प्रसिद्ध लाई खाएंगे तो इसके दीवाने हो जाएंगे. लोग हमारे पास आकर इस बनाने की विधि पूछकर जाते हैं.
ऐसे बनती है लाई-
बाढ़-धनरूआ की प्रसिद्ध लाई बनाने के लिए माढ़ा, दानेदार फसल, खोया, चीनी, काजू आदि सामग्रियों की ज़रूरत पड़ती है. सबसे पहले खोया तैयार किया जाता है. फिर इस खोये में माढ़ा, चीनी, किशमिश, काजू आदि मिलाकर इसे गोल आकार में लपेट दिया जाता है. इस कुछ समय तक सुखाया जाता है. अब लाई खाने के लिए तैयार है.
प्रभात खबर में 7 जनवरी 2018 को प्रकाशित: http://epaper.prabhatkhabar.com/c/25183802