Saturday, August 25, 2018

जिसने खायी उसने सराही, ये है फतुहा की मिरजई मिठाई

टेस्ट ऑफ बिहार®पटना. 

बिहार की राजधानी पटना जिले का फतुहा कस्बा गंगा किनारे बसा हुआ वह छोटा सा शहर है जो व्यापारिक गतिविधियों का पुराना केंद्र रहा है. मौर्य और गुप्त काल में जहां यह राजधानी पटना का जुड़वां शहर हुआ करता था वहीं 1850 ई के आसपास जब रेल लाइन यहां से गुजरते हुए मोकामा तक गयी तो यह शहर व्यापारिक गतिविधियों का बड़ा केंद्र हो गया. इस शहर में अाजादी के पहले ही मिरजई नामक मिठाई अपना नाम स्थापित कर चुका था. यहां से लोग संदेश के रूप में मिरजई ले जाया करते थे जो परंपरा अभी भी जारी है. बिहार ही नहीं जब देश के प्रमुख राजनीतिज्ञ जब भी इस फतुहा से गुजरते हैं तो उनके कार्यकर्ता भेंट के रूप में उन्हें मिरजई जरूर देते हैं. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी जब 1990 में फतुहा में अपने चुनावी अभियान के तहत आये थे, तब कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने उन्हें मिरजई खिलायी थी. कहते हैं मिरजई उन्हें इतनी पसंद आई तो उन्होंने कार्यकर्ताओं से इसे पुनः मंगवाया था. यहां के कांग्रेस नेता बताते हैं कि राजीव गांधी ने दिल्ली से संदेशा भेजा तो उन्हें फतुहा से मिरजई भेजी गयी थी. बिहार के लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, राम विलास पासवान सरीखे नेता को भी मिरजई पसंद है और उन्हें भी कार्यकर्ता का प्यार इसी मिठाई के जरिये मिलता है.
बुलकन साव की मिरजई फेमस
यूं तो शहर में मिरजई की दुकान बहुत है, लेकिन स्व. बुलकन साव की दुकान के चर्चे दूर-दूर तक हैं. पसंद करने वाले ऑर्डर देकर यहीं से मिरजई बनवाते हैं. स्व. बुलकन साव के बेटे मोहन साव फिलहाल इस दुकान को चला रहे हैं. मोहन साव बताते हैं कि आम बिक्री और ऑर्डर की क्वालिटी में थोड़ा अंतर होता है. अब शुद्ध घी की मिरजई आर्डर मिलने पर ही बनाते हैं क्योंकि वह 250 से 300 रुपए प्रति किलो बिकती है. रिफाइंड आदि में बनायी गयी मिरजई 80 से 90 रुपये प्रति किलो बेचते हैं. कारीगर संजय बताते हैं कि मैदा और घी को मिलाने के बाद इसे आकार देकर छानते हैं और चीनी की चाशनी में हल्का तार देकर बनाते हैं. शुद्ध घी की मिठाई का रेट सिर्फ ऑर्डर देने वाले ही देते हैं. बड़े लोगों के शौक ऑर्डर से पूरे होते हैं, जबकि आम बिक्री में रिफाइंड या डालडा की मिरजई चलती है. लोग इसके स्वाद के दीवाने आज भी हैं.

Saturday, August 18, 2018

स्वाद की नमकीन 'गठरी', ये है आरा की 'मठरी'

टेस्ट ऑफ बिहार@पटना. 
राजधानी पटना से महज 55 किलोमीटर की दूरी पर स्थित आरा का इतिहास बेहद समृद्ध रहा है. डिहरी से निकलने वाली सोन की प्रमुख 'आरा नहर' भी यहीं से होकर जाती है, जिसके कारण भी इस शहर का नाम आरा पड़ा. आरा इतना प्रमुख शहर है कि अंग्रेजों को 1865 में इसे नगरपालिका का दर्जा देना पड़ा था. गंगा और सोन की उपजाऊ घाटी में स्थित होने के कारण यह अनाज का प्रमुख व्यापारिक क्षेत्र तथा वितरण केंद्र है. रेल मार्ग और पक्की सड़क द्वारा यह पटना, वाराणसी, सासाराम आदि से सीधा जुड़ा हुआ है. बाबू कुंवर सिंह की यह धरती ना केवल वीरता बल्कि अपने स्वाद की वजह से भी जानी जाती है. एक ऐसा स्वाद जो पूरे बिहार में केवल यहीं बनती है. मैदे, बेसन, आटे से बनने वाली यह नमकीन कोई और नहीं बल्कि मठरी है. इसका स्वाद ना केवल सुबह की चाय पर ली जाती है बल्कि यात्रा पर भी इसका स्वाद एक विशेष अनुभव देता है. बेसन की मठरी आरा का ब्रांड विशेष पकवान है. मठरी को आप लंबे समय तक स्टोर कर के रख सकते हैं. मठरी बनाने की विशेषज्ञ गीता जैन बताती हैं कि उन्हें तरह-तरह का पकवान बनाना बेहद पसंद है. बेसन की मठरी से खास लगाव है क्योंकि इसको आप स्नैक्स के तौर पर खा सकते हैं.
ऐसे बनाएं मठरी:
आप मैदा 500 ग्राम, बेसन 250 ग्राम, जीरा एक चाय चम्मच, लाल मिर्च पाउडर आधा चाय चम्मच, हींग-दो चुटकी पीसा हुआ लें और साथ में नमक स्वादानुसार रखें. रिफाइंड तेल भी अलग से रख लें. मैदा में रिफाइंड तेल और नमक डाल कर एक साथ मिक्स कर लें. हल्के गर्म पानी से मैदा को कड़ा गूंथ लें. हींग को थोड़ा पानी में घोल कर रख लें. भरावन के लिए बेसन में रिफाइंड तेल, नमक, जीरा, लाल मिर्च पाउडर और हींग के साथ मिलाकर दस मिनट के लिए रख दें. फिर से बेसन में पानी की कुछ छीटें देकर बेसन को भुरभुरा गूंथ लें. अब गूंथे हुए मैदे की लोई में बेसन को भरें. अब लोई को हल्का मोचा बेल लें. बेली हुई मठरी में कांटे वाले चम्मच से छेद कर लें. अब एक कढ़ाई में रिफाइंड तेल को मध्यम आंच पर गर्म करें. फिर मठरी को डाल कर दोनों तरफ गुलाबी होने तक तल कर निकाल लें. जब मठरी ठंडा हो जाये तो आप इसे एयर टाइट डब्बे में रखे. इसे आप कभी भी खा सकते हैं.

Saturday, August 11, 2018

कटहल का कोए में बसा है ठेठ बिहारी स्वाद

टेस्ट ऑफ बिहार4पटना.
कटहल भले हमारे पड़ोसी देश बांग्लादेश का राष्ट्रीय फल है लेकिन कटहल का फल जिसे कोवा भी कहते हैं उसमें ठेठ बिहारीपन बसा हुआ है. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की पटना इकाई ने जो दो उन्नत प्रजातियां विकसित की है उसमें सब्जी के लिए स्वर्ण पूर्ति अौर पके फल (कोवा) के लिए स्वर्ण मनोहर प्रजाति के रूप में पूरे देश में पायी जाती है. देश में जहां केरल ने कटहल की सबसे प्रजातियां चिह्नित की है लेकिन उनका फोकस कटहल से बनने वाले आटे और अनाज पर ज्यादा केंद्रित है वहीं फल पर बिहार का एकाधिकार है जो सभी जगहों पर दिखायी देती है. कटहल का हमारे समाज से भी बेहद करीब का जुड़ाव है. एक कहावत भोजपुरी में बहुत इस्तेमाल किया जाता है खासकर जब कोई बहुत भाव खा रहा होता है. ..अदरी बहुरिया कटहर न खायकहावत है कि ...अदरी बहुरिया कटहर न खाय, मोचा ले पिछवाड़े जाये. कहावत के पीछे की कहानी  ये है कि घर में नयी बहू आई है और सास उसको बहुत मानती है तो कहती है कि बहू कटहल खा लो, लेकिन बहू को तो कटहल से ज्यादा भाव खाने का मन है तो वो नहीं खाती है. लेकिन उसका मन तो कटहल के लिए ललचा रहा था. तो जब सब लोग कटहल का कोवा खा चुके होते हैं तो जो बचे खुचे हिस्से होते हैं जिन्हें मोचा कहा जाता है और जिनमें बहुत ही फीका सा स्वाद होता है और जिसे अक्सर फेंक दिया जाता है, बहू कटहल का वही बचा खुचा टुकड़ा घर के पिछवाड़े में जा के खाती है.
बहुपयोगी है कटहल का कोवा
कटहल मधुमेह पर नियंत्रण में सहायक है. वहीं सिडनी यूनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट के मुताबिक कटहल में फाइबर अधिक पर प्रोटीन, कैलोरी व कार्बोहाइड्रेट कम होने से यह वजन घटाने में भी मददगार है. यह फल कच्चा व पका दोनों रूपों में स्वादिष्ट व लोकप्रिय है. अब कटहल की प्रोसेसिंग कर इससे जैम, अचार, चटनी, शरबत, हलवा व जूस सहित चिप्स व नट केक भी बनाया जाता है वहीं बिरयानी, डोसा, पूड़ी, समोसा, काठी रोल, उपमा, उत्तपम व इडली  बनाने में भी कटहल का प्रयोग हो रहा है.