Sunday, December 31, 2017

सीतामढ़ी के रून्नी सैदपुर के बालू शाही का स्वाद है ‘शाही’

 #टेस्ट_ऑफ_बिहार, पटना
मुज़फ्फ़रपुर से तक़रीबन 35 किलोमीटर दूर सीतामढ़ी ज़िला के ‘गेट वे’ के रूप में जाना जाने वाले रून्नी-सैदपुर अपने शाही स्वाद के कारण भी जाना जाता है. यह स्वाद है बालू शाही का. दरअसल, रून्नी और सैदपुर दो अलग-अलग गांव हैं. जिन्हें मिलाकर इसे रून्नी-सैदपुर के नाम से जाना जाता है. हमेशा बाढ़ का आना इस क्षेत्र की खास पहचान है लेकिन यहां के बालूशाही की भी अपनी खास पहचान है. अपने खास स्वाद के कारण यहां की बालू शाही पूरे भारत में पसंद की जाती है. इसी कारण जब भी रुन्नी सैदपुर का नाम आता है तो बालूशाही बरबस याद आ जाती है. प्रखंड स्तरीय इस कस्बे में कुरकुरे और कम मीठे बालू शाही की मांग उत्तर बिहार से लेकर दक्षिण बिहार तक है. मैदा, घी, बेकिंग सोडा, चीनी और दही का प्रयोग कर बालूशाही को बनाया जाता है. रून्नी सैदपुर के प्रशांत और प्रभात मिष्ठान्न भंडार के प्रभात तथा प्रशांत बताते हैं कि इसे बनाने में पैशेंस की आवश्यकता होती है और दिल से स्वाद को बेहतरीन बनाते हैं. सबसे पहले मैदा छान कर उसमें बेकिंग सोडा़, दही और घी मिलाने के बाद गुनगुने पानी से नरम आटा गूथ कर कुछ देर ढ़क दिया जाता है.

एक तार की चाशनी में ही बनती है बालूशाही
इसके बाद कढ़ाई में घी गर्म कर अच्छे से तलना होता है. इसमें चाशनी बनाने का काम सबसे महत्वपूर्ण होता है. आधा पानी और दुगनी चीनी से एक तार की चाशनी बनाइये और जब चाशनी हल्की गरम रह जाए तो उसमें सारी बालूशाही डुबो दीजिये. चंद मिनटों के बाद इन्हें चिमटे से निकाल कर थाली या प्लेट में रखकर ठंडा करना होता है. बालूशाही पर चढ़ी चाशनी अच्छी तरह सूखने के बाद स्वादिष्ट बालूशाही तैयार हो जाती है. अब आप चाहें तो इसे ताजा खाएं या फिर इन्हें किसी एअर टाइट कंटेनर में भरकर रख दें. इसके बाद 20 दिनों तक कभी भी खराब नहीं होता है. यहां रिफाइंड ऑयल में बना बालूशाही सौ रुपये किलो तो घी वाला बालूशाही 250 रुपये किलो की दर से मिलता है.
प्रभात खबर, पटना में 31 दिसंबर 2017 को प्रकाशित :
http://epaper.prabhatkhabar.com/c/25010036

Saturday, December 23, 2017

रोहतास के चेनारी के गुड़ई लड्डू पर आप भी हो जाएंगे लट्टू

पटना.
सतयुग के सूर्यवंशी राजा सत्य हरिश्चंद्र के पुत्र रोहिताश्व द्वारा स्थापित रोहतास गढ़ के किले के नाम पर रोहतास का नामाकरण हुआ. रोहतास एक तरफ से कैमूर की पहाड़ी तो दूसरी तरफ सोन नदी से घिरा हुआ है. रोहतास गढ़ के किले का सुनहरा इतिहास सबको अाकर्षित करता है. इस इलाके में रोहतास गढ़ के किले में छुपे हुए खजाने की कहानी बड़ी रुचि से सुनाई जाती है. फ्रांसिसी इतिहासकार जॉन बुकानन ने 200 साल पहले अपनी डायरी के पेज 77 पर इस खजाने के बारे में लिखा था लेकिन इसी रोहतास के चेनारी बाजार में गुड़ के लड्डू के स्वाद का खजाना भी है. यह ऐसा जो आपको लड्डू के एक नये स्वाद से परिचित करायेगा. इस स्वाद में तिल, सौंफ, इलायची और नारियल खस खस के साथ घी भी घुला होगा. यह रोहतास, सासाराम, बिक्रमगंज के इलाके में काफी बिकता है और अब इसे राजधानी पटना में आयोजित होने वाले विभिन्न मेलों में भी प्रसिद्धि मिल रही है.
15 दिनों तक खराब नहीं होता है यह लड्डू
यह लड्डू खाने में सुपाच्य और पौष्टिक तो होता ही है, अपनी गर्म तासीर के कारण ठंड के दिनों में विशेष लाभदायक होता है. चेनारी के इंदिरा चौक की प्रसिद्ध दुकान के मालिक कृष्ण मोहन गुप्ता कहते हैं कि शुद्ध गुड़, बेसन और तिल का बना गुड़ई लड्डू का स्वाद लाजवाब है. सभी का मिश्रण बनाकर इसे गुड़ की चासनी में तैयार किया जाता है. यह मिलावटी खोवा, डालडा और चीनी से पूरी तरह रहित है. चेनारी की ही माया देवी, लड्डू तैयार करती हैं. वह कहती हैं कि इसका सौंधा स्वाद आपको घर के लिए खरीदने पर मजबूर कर देगा. यह 15 दिनों तक खराब नहीं होता है. यह केवल 120 रुपये से 150 रुपये किलो की दर से बेचा जाता है.

Monday, December 18, 2017

हमेशा याद रहेगी बक्सर की सोणी सोणी सोन पापड़ी

#टेस्टऑफबिहार: पटना

बक्सर. गंगा के तट पर बसे इस शहर के इतिहास के साथ बिहार ही नहीं पूरे भारत का इतिहास जुड़ा हुआ है. इस शहर में 1764 में बंगाल के नवाब शुजाउद्दौला और अंग्रेजों की सेना के बीच ऐसी लड़ाई हुई जिसने इंडिया में अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार की नींव रख दी. नवाब ने अपनी गलतियों के कारण ना केवल सत्ता खोयी बल्कि अंग्रेजों को बिहार और बंगाल पर शासन करने की चाबी भी थमा दी. इसी शहर में गुरु विश्वामित्र का आश्रम भी था और इसी शहर में वेद के रचयिताओं की भी मंडली के निवास का इतिहास है. अब इसी शहर की सोन पापड़ी से कौन नहीं परिचित है? आप मुगलसराय रेल खंड के जरिये बिहार का सफर करते हों या फिर बिहार से बाहर जा रहे हों यहां की सोन पापड़ी आपको इतनी लुभाती है कि इसके स्वाद का मोह आप संवरण नहीं कर पाते हैं.
बदरी और महर्षि की सोन पापड़ी के कद्रदान हजार
यूं तो बक्सर की पापड़ी मशहूर है ही लेकिन स्टेशन रोड के पास बदरी पापड़ी भंडार और महर्षि मिष्ठान्न भंडार की सोन पापड़ी के कद्रदान ढेरो हैं. यहां की पापड़ी में एक ऐसी मिठास है जो अनूठी है. आपके पास घी और रिफाइंड की सोनपापड़ी का भी ऑप्शन मिल जाता है. स्टेशन रोड और यमुना चौक इलाके में पापड़ी के दर्जनों दुकान हैं जहां पर हर ग्राहक को शौक़ से मिठाई खरीदने के पूर्व मिठाई बकायदा प्लेट में खिलाई जाती हैं. यह परंपरा आज भी कायम हैं. यह मिठाई के साथ प्यार का घुला हुआ मिठास होता है जो यहां के दुकानदार साथ में दे देते है.
100 रु प्रति किलो से 250 रुपये तक की है दर
बक्सर में आपको 100 रुपये किलो से लेकर 250 रुपये किलो तक सोन पापड़ी मिलेगी. यहां के स्वाद के कद्रदान राघव उपाध्याय बताते हैें कि रिफाइंड वाले सोन पापड़ी की दर 160 रुपये किलो से लेकर 200 रुपये तक है और घी से बने सोनपापड़ी की कीमत 200 रुपये से 250 रुपये किलो तक. यहां लोग शादी-ब्याह, गिफ़्ट व पूजा नेवता आदि के लिए लोग मिठाई खरीदते हैं. यहां के कारीगरों ने बक्सर की सोन पापड़ी को जन सुलभ बनाकर इसकी प्रसिद्धि को और ऊंचाई दी है.
प्रभात खबर में 17 दिसंबर 2017 को प्रकाशित मेरी रिपोर्ट -Ravi
http://epaper.prabhatkhabar.com/c/24629869

Saturday, December 9, 2017

पूस का महीना आया अापने खाया ना खट्टा-मीठा ब्रांड बिहारी पिट्ठा?


 पटना.
यदि आप बिहार में रहते हैं तो ये चाइनीज मोमोज आपके लिए बिल्कुल अनजाना खाद्य पदार्थ नहीं लगता और ना ही नेपाली ममचा क्योंकि यह दोनों अपने देसी पिट्ठा का ही विदेशी संस्करण है. पिट्ठा शब्द के जन्म की कहानी बेहद दिलचस्प है. दरअसल पीसा हुआ पदार्थ संस्कृत में पिष्ट कहलाता है और पीसे हुए आटे को पानी या दूध में गूंथ कर गोल या चपटे आकार के उबले या तले खाद्य पदार्थ को पिष्टक की संज्ञा दी जाती है. यह पिट्ठा इसी पिष्टक का अपभ्रंश है. इसे मिथिला में बगिया कहा जाता है, आसाम में मोहुरा तो बिहार-झारखंड और यूपी में पिट्ठा.

पूस आ गया पिट्ठा नहीं बनेगा?
अपना बिहारी पिट्ठा इस वजह से ब्रांड है क्योंकि यह नयी फसल का पकवान है. ऐसा पकवान जो हर घर में पौष या पूस का महीना आते ही जरूर बनता है. पूस का महीना आते ही बिहार के तकरीबन हर घर में पिट्ठा के बनने के बारे में सवाल शुरू हो जाते हैं. पूस आ गया है पिट्ठा नहीं बनेगा? इसका कारण भी पर्याप्त है. कृषि प्रधान राज्य होने के कारण बिहार का हर घर नयी फसल की खुशबू से दो चार होता है. जब धान की फसल खेतों से घर आती है तो पहले चूड़ा बनता है फिर धान कुटा कर चावल बनते ही पिट्ठा की डिमांड हर घर में शुरू हो जाती है.


पिट्ठा खट्टा भी मीठा भी...
पिट्ठा बनाने में खूब प्रयोग होता है. वह खट्टा भी बनता है और मीठा भी. नमकीन का तड़का भी होता है. मीठा में जो प्रयोग करना है आप कर लीजिए. जाड़े में गुड़ मिलता है, उसी को डाल दीजिए. बादाम और गुड़ मिलाकर मिश्रण का चावल के आटे की लोई के बीच में डालकर पका लीजिए. दाल दे दीजिए, अभी नया आलू आया तो उसका भी चोखा बनाकर भर लीजिए. पिट्ठा सबको अपने में समाहित कर लेगा. नमकीन गर्मा गर्म पानी में उबालिए या दूध में, कोई फर्क नहीं पड़ता. आपको ऐसा स्वाद मिलेगा जो अापको फिर से डिमांड करने पर मजबूर कर देगा. चार दिसंबर से पौष की शुरूआत हो चुकी है तो आप भी अगले एक महीने तक पूस के पिट्ठे का गर्मागर्म स्वाद लेते रहिए.
http://epaper.prabhatkhabar.com/c/24396154

Saturday, December 2, 2017

गया के तिलकुट की सौंधी महक के साथ महसूस करिये सर्दी में गर्माहट

पटना. धार्मिक नगरी गया यूं तो देश में हिंदू धर्म की सबसे बड़ी तीर्थ स्थली है, जहां ना केवल पितरों की आत्मा को शांति मिलती है बल्कि दुनिया भर में भगवान विष्णु के पदचिह्न भी यहीं मिले हैं. कहते हैं विष्णु यहां गयासुर राक्षस का वध करने पहुंचे थे, उसी वक्त उनके पदचिह्न उत्कीर्ण हो गये थे. गयासुर के नाम पर ही इस शहर का नाम गया पड़ा जो अब भी बरकरार है. लेकिन गया की पहचान बिहार के एक सबसे बेहतरीन स्वाद से जुड़ी हुई है. जो इस सर्दी में बिहार का बहुत ही खास व्यंजन हो जाता है. जी हां सही पहचाना आपने तिलकुट. जो तिल तथा चीनी या गुड़ से बनाया जाता है. गया एक तरह से तिलकुट का पर्याय भी माना जाता है. अब जब गुलाबी सर्दी कड़ाके की ठंड में तब्दील हो रही है तो इस मौसम में तिल की सौंधी खुशबू से आप गर्माहट महसूस कर सकते हैं. गया के तिलकुट की शान ना केवल बिहार-झारखंड बल्कि देश विदेश तक है. गया में तिलकुट के पुराने कारोबारी देवनंदन बताते हैं कि तिलकुट की कई किस्में होती हैं. मावेदार तिलकुट, खोया तिलकुट, चीनी तिलकुट व गुड़ तिलकुट बाजार में मिलते हैं.
150 साल पहले से गया में बन रहा तिलकुट
सर्वमान्य धारणा है कि धर्म नगरी गया में करीब डेढ़ सौ वर्ष पूर्व तिलकुट बनाने का कार्य प्रारंभ हुआ. गया के प्रसिद्ध तिलकुट प्रतिष्ठान श्रीराम भंडार के एक बुजुर्ग कारीगर रामेश्वर ने बताया कि गया के रमना मुहल्ले में पहले तिलकुट निर्माण का कार्य प्रारंभ हुआ था. वैसे अब टेकारी रोड, कोयरीबारी, स्टेशन रोड सहित कई इलाकों में कारीगर हाथ से कूटकर तिलकुट का निर्माण करते हैं. रमना रोड और टेकारी के कारीगरों द्वारा बने तिलकुट आज भी बेहद लजीज होते हैं. वे बताते हैं कि कुछ ऐसे परिवार भी गया में हैं, जिनका यह खानदानी पेशा बन गया है. खास्ता तिलकुट के लिए प्रसिद्ध गया का तिलकुट झारखंड, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र सहित अन्य राज्यों में भेजा जाता है.
हजारों लोगों का जुड़ा है रोजगार
अभी से ही गया की सड़कों पर तिलकुट की सौंधी महक और तिल कूटने की धम-धम की आवाज आ रही है. गया में हाथ से कूटकर बनाए जाने वाले तिलकुट बेहद खस्ता होते हैं. गया के तिलकुट के स्वाद का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दिसंबर व जनवरी महीने में बोधगया आने वाला कोई भी पर्यटक गया का तिलकुट ले जाना नहीं भूलता. एक अनुमान के मुताबिक, इस व्यवसाय से गया जिले में करीब सात हजार से ज्यादा लोग जुड़े हैं. स्थानीय लोगों के अनुसार, पहले तिलकुट व्यवसाय से तीन और व्यवसाय जिसमें ताड़ के पत्ते का दोना, बांस की बनी डलिया और लकड़ी का बक्सा और कागज का ठोंगा जुड़ा था. तिलकुट के साथ इन चीजों को इसलिए जोड़ा गया था, क्योंकि तिलकुट पर थोड़ा भी दबाव पड़ने पर वह चूर हो जाता था, परंतु अब इनकी जगह पॉलिथीन और कूट के डब्बे ने ले लिया है.