Sunday, December 31, 2017

सीतामढ़ी के रून्नी सैदपुर के बालू शाही का स्वाद है ‘शाही’

 #टेस्ट_ऑफ_बिहार, पटना
मुज़फ्फ़रपुर से तक़रीबन 35 किलोमीटर दूर सीतामढ़ी ज़िला के ‘गेट वे’ के रूप में जाना जाने वाले रून्नी-सैदपुर अपने शाही स्वाद के कारण भी जाना जाता है. यह स्वाद है बालू शाही का. दरअसल, रून्नी और सैदपुर दो अलग-अलग गांव हैं. जिन्हें मिलाकर इसे रून्नी-सैदपुर के नाम से जाना जाता है. हमेशा बाढ़ का आना इस क्षेत्र की खास पहचान है लेकिन यहां के बालूशाही की भी अपनी खास पहचान है. अपने खास स्वाद के कारण यहां की बालू शाही पूरे भारत में पसंद की जाती है. इसी कारण जब भी रुन्नी सैदपुर का नाम आता है तो बालूशाही बरबस याद आ जाती है. प्रखंड स्तरीय इस कस्बे में कुरकुरे और कम मीठे बालू शाही की मांग उत्तर बिहार से लेकर दक्षिण बिहार तक है. मैदा, घी, बेकिंग सोडा, चीनी और दही का प्रयोग कर बालूशाही को बनाया जाता है. रून्नी सैदपुर के प्रशांत और प्रभात मिष्ठान्न भंडार के प्रभात तथा प्रशांत बताते हैं कि इसे बनाने में पैशेंस की आवश्यकता होती है और दिल से स्वाद को बेहतरीन बनाते हैं. सबसे पहले मैदा छान कर उसमें बेकिंग सोडा़, दही और घी मिलाने के बाद गुनगुने पानी से नरम आटा गूथ कर कुछ देर ढ़क दिया जाता है.

एक तार की चाशनी में ही बनती है बालूशाही
इसके बाद कढ़ाई में घी गर्म कर अच्छे से तलना होता है. इसमें चाशनी बनाने का काम सबसे महत्वपूर्ण होता है. आधा पानी और दुगनी चीनी से एक तार की चाशनी बनाइये और जब चाशनी हल्की गरम रह जाए तो उसमें सारी बालूशाही डुबो दीजिये. चंद मिनटों के बाद इन्हें चिमटे से निकाल कर थाली या प्लेट में रखकर ठंडा करना होता है. बालूशाही पर चढ़ी चाशनी अच्छी तरह सूखने के बाद स्वादिष्ट बालूशाही तैयार हो जाती है. अब आप चाहें तो इसे ताजा खाएं या फिर इन्हें किसी एअर टाइट कंटेनर में भरकर रख दें. इसके बाद 20 दिनों तक कभी भी खराब नहीं होता है. यहां रिफाइंड ऑयल में बना बालूशाही सौ रुपये किलो तो घी वाला बालूशाही 250 रुपये किलो की दर से मिलता है.
प्रभात खबर, पटना में 31 दिसंबर 2017 को प्रकाशित :
http://epaper.prabhatkhabar.com/c/25010036

Saturday, December 23, 2017

रोहतास के चेनारी के गुड़ई लड्डू पर आप भी हो जाएंगे लट्टू

पटना.
सतयुग के सूर्यवंशी राजा सत्य हरिश्चंद्र के पुत्र रोहिताश्व द्वारा स्थापित रोहतास गढ़ के किले के नाम पर रोहतास का नामाकरण हुआ. रोहतास एक तरफ से कैमूर की पहाड़ी तो दूसरी तरफ सोन नदी से घिरा हुआ है. रोहतास गढ़ के किले का सुनहरा इतिहास सबको अाकर्षित करता है. इस इलाके में रोहतास गढ़ के किले में छुपे हुए खजाने की कहानी बड़ी रुचि से सुनाई जाती है. फ्रांसिसी इतिहासकार जॉन बुकानन ने 200 साल पहले अपनी डायरी के पेज 77 पर इस खजाने के बारे में लिखा था लेकिन इसी रोहतास के चेनारी बाजार में गुड़ के लड्डू के स्वाद का खजाना भी है. यह ऐसा जो आपको लड्डू के एक नये स्वाद से परिचित करायेगा. इस स्वाद में तिल, सौंफ, इलायची और नारियल खस खस के साथ घी भी घुला होगा. यह रोहतास, सासाराम, बिक्रमगंज के इलाके में काफी बिकता है और अब इसे राजधानी पटना में आयोजित होने वाले विभिन्न मेलों में भी प्रसिद्धि मिल रही है.
15 दिनों तक खराब नहीं होता है यह लड्डू
यह लड्डू खाने में सुपाच्य और पौष्टिक तो होता ही है, अपनी गर्म तासीर के कारण ठंड के दिनों में विशेष लाभदायक होता है. चेनारी के इंदिरा चौक की प्रसिद्ध दुकान के मालिक कृष्ण मोहन गुप्ता कहते हैं कि शुद्ध गुड़, बेसन और तिल का बना गुड़ई लड्डू का स्वाद लाजवाब है. सभी का मिश्रण बनाकर इसे गुड़ की चासनी में तैयार किया जाता है. यह मिलावटी खोवा, डालडा और चीनी से पूरी तरह रहित है. चेनारी की ही माया देवी, लड्डू तैयार करती हैं. वह कहती हैं कि इसका सौंधा स्वाद आपको घर के लिए खरीदने पर मजबूर कर देगा. यह 15 दिनों तक खराब नहीं होता है. यह केवल 120 रुपये से 150 रुपये किलो की दर से बेचा जाता है.

Monday, December 18, 2017

हमेशा याद रहेगी बक्सर की सोणी सोणी सोन पापड़ी

#टेस्टऑफबिहार: पटना

बक्सर. गंगा के तट पर बसे इस शहर के इतिहास के साथ बिहार ही नहीं पूरे भारत का इतिहास जुड़ा हुआ है. इस शहर में 1764 में बंगाल के नवाब शुजाउद्दौला और अंग्रेजों की सेना के बीच ऐसी लड़ाई हुई जिसने इंडिया में अंग्रेजी साम्राज्य के विस्तार की नींव रख दी. नवाब ने अपनी गलतियों के कारण ना केवल सत्ता खोयी बल्कि अंग्रेजों को बिहार और बंगाल पर शासन करने की चाबी भी थमा दी. इसी शहर में गुरु विश्वामित्र का आश्रम भी था और इसी शहर में वेद के रचयिताओं की भी मंडली के निवास का इतिहास है. अब इसी शहर की सोन पापड़ी से कौन नहीं परिचित है? आप मुगलसराय रेल खंड के जरिये बिहार का सफर करते हों या फिर बिहार से बाहर जा रहे हों यहां की सोन पापड़ी आपको इतनी लुभाती है कि इसके स्वाद का मोह आप संवरण नहीं कर पाते हैं.
बदरी और महर्षि की सोन पापड़ी के कद्रदान हजार
यूं तो बक्सर की पापड़ी मशहूर है ही लेकिन स्टेशन रोड के पास बदरी पापड़ी भंडार और महर्षि मिष्ठान्न भंडार की सोन पापड़ी के कद्रदान ढेरो हैं. यहां की पापड़ी में एक ऐसी मिठास है जो अनूठी है. आपके पास घी और रिफाइंड की सोनपापड़ी का भी ऑप्शन मिल जाता है. स्टेशन रोड और यमुना चौक इलाके में पापड़ी के दर्जनों दुकान हैं जहां पर हर ग्राहक को शौक़ से मिठाई खरीदने के पूर्व मिठाई बकायदा प्लेट में खिलाई जाती हैं. यह परंपरा आज भी कायम हैं. यह मिठाई के साथ प्यार का घुला हुआ मिठास होता है जो यहां के दुकानदार साथ में दे देते है.
100 रु प्रति किलो से 250 रुपये तक की है दर
बक्सर में आपको 100 रुपये किलो से लेकर 250 रुपये किलो तक सोन पापड़ी मिलेगी. यहां के स्वाद के कद्रदान राघव उपाध्याय बताते हैें कि रिफाइंड वाले सोन पापड़ी की दर 160 रुपये किलो से लेकर 200 रुपये तक है और घी से बने सोनपापड़ी की कीमत 200 रुपये से 250 रुपये किलो तक. यहां लोग शादी-ब्याह, गिफ़्ट व पूजा नेवता आदि के लिए लोग मिठाई खरीदते हैं. यहां के कारीगरों ने बक्सर की सोन पापड़ी को जन सुलभ बनाकर इसकी प्रसिद्धि को और ऊंचाई दी है.
प्रभात खबर में 17 दिसंबर 2017 को प्रकाशित मेरी रिपोर्ट -Ravi
http://epaper.prabhatkhabar.com/c/24629869

Saturday, December 9, 2017

पूस का महीना आया अापने खाया ना खट्टा-मीठा ब्रांड बिहारी पिट्ठा?


 पटना.
यदि आप बिहार में रहते हैं तो ये चाइनीज मोमोज आपके लिए बिल्कुल अनजाना खाद्य पदार्थ नहीं लगता और ना ही नेपाली ममचा क्योंकि यह दोनों अपने देसी पिट्ठा का ही विदेशी संस्करण है. पिट्ठा शब्द के जन्म की कहानी बेहद दिलचस्प है. दरअसल पीसा हुआ पदार्थ संस्कृत में पिष्ट कहलाता है और पीसे हुए आटे को पानी या दूध में गूंथ कर गोल या चपटे आकार के उबले या तले खाद्य पदार्थ को पिष्टक की संज्ञा दी जाती है. यह पिट्ठा इसी पिष्टक का अपभ्रंश है. इसे मिथिला में बगिया कहा जाता है, आसाम में मोहुरा तो बिहार-झारखंड और यूपी में पिट्ठा.

पूस आ गया पिट्ठा नहीं बनेगा?
अपना बिहारी पिट्ठा इस वजह से ब्रांड है क्योंकि यह नयी फसल का पकवान है. ऐसा पकवान जो हर घर में पौष या पूस का महीना आते ही जरूर बनता है. पूस का महीना आते ही बिहार के तकरीबन हर घर में पिट्ठा के बनने के बारे में सवाल शुरू हो जाते हैं. पूस आ गया है पिट्ठा नहीं बनेगा? इसका कारण भी पर्याप्त है. कृषि प्रधान राज्य होने के कारण बिहार का हर घर नयी फसल की खुशबू से दो चार होता है. जब धान की फसल खेतों से घर आती है तो पहले चूड़ा बनता है फिर धान कुटा कर चावल बनते ही पिट्ठा की डिमांड हर घर में शुरू हो जाती है.


पिट्ठा खट्टा भी मीठा भी...
पिट्ठा बनाने में खूब प्रयोग होता है. वह खट्टा भी बनता है और मीठा भी. नमकीन का तड़का भी होता है. मीठा में जो प्रयोग करना है आप कर लीजिए. जाड़े में गुड़ मिलता है, उसी को डाल दीजिए. बादाम और गुड़ मिलाकर मिश्रण का चावल के आटे की लोई के बीच में डालकर पका लीजिए. दाल दे दीजिए, अभी नया आलू आया तो उसका भी चोखा बनाकर भर लीजिए. पिट्ठा सबको अपने में समाहित कर लेगा. नमकीन गर्मा गर्म पानी में उबालिए या दूध में, कोई फर्क नहीं पड़ता. आपको ऐसा स्वाद मिलेगा जो अापको फिर से डिमांड करने पर मजबूर कर देगा. चार दिसंबर से पौष की शुरूआत हो चुकी है तो आप भी अगले एक महीने तक पूस के पिट्ठे का गर्मागर्म स्वाद लेते रहिए.
http://epaper.prabhatkhabar.com/c/24396154

Saturday, December 2, 2017

गया के तिलकुट की सौंधी महक के साथ महसूस करिये सर्दी में गर्माहट

पटना. धार्मिक नगरी गया यूं तो देश में हिंदू धर्म की सबसे बड़ी तीर्थ स्थली है, जहां ना केवल पितरों की आत्मा को शांति मिलती है बल्कि दुनिया भर में भगवान विष्णु के पदचिह्न भी यहीं मिले हैं. कहते हैं विष्णु यहां गयासुर राक्षस का वध करने पहुंचे थे, उसी वक्त उनके पदचिह्न उत्कीर्ण हो गये थे. गयासुर के नाम पर ही इस शहर का नाम गया पड़ा जो अब भी बरकरार है. लेकिन गया की पहचान बिहार के एक सबसे बेहतरीन स्वाद से जुड़ी हुई है. जो इस सर्दी में बिहार का बहुत ही खास व्यंजन हो जाता है. जी हां सही पहचाना आपने तिलकुट. जो तिल तथा चीनी या गुड़ से बनाया जाता है. गया एक तरह से तिलकुट का पर्याय भी माना जाता है. अब जब गुलाबी सर्दी कड़ाके की ठंड में तब्दील हो रही है तो इस मौसम में तिल की सौंधी खुशबू से आप गर्माहट महसूस कर सकते हैं. गया के तिलकुट की शान ना केवल बिहार-झारखंड बल्कि देश विदेश तक है. गया में तिलकुट के पुराने कारोबारी देवनंदन बताते हैं कि तिलकुट की कई किस्में होती हैं. मावेदार तिलकुट, खोया तिलकुट, चीनी तिलकुट व गुड़ तिलकुट बाजार में मिलते हैं.
150 साल पहले से गया में बन रहा तिलकुट
सर्वमान्य धारणा है कि धर्म नगरी गया में करीब डेढ़ सौ वर्ष पूर्व तिलकुट बनाने का कार्य प्रारंभ हुआ. गया के प्रसिद्ध तिलकुट प्रतिष्ठान श्रीराम भंडार के एक बुजुर्ग कारीगर रामेश्वर ने बताया कि गया के रमना मुहल्ले में पहले तिलकुट निर्माण का कार्य प्रारंभ हुआ था. वैसे अब टेकारी रोड, कोयरीबारी, स्टेशन रोड सहित कई इलाकों में कारीगर हाथ से कूटकर तिलकुट का निर्माण करते हैं. रमना रोड और टेकारी के कारीगरों द्वारा बने तिलकुट आज भी बेहद लजीज होते हैं. वे बताते हैं कि कुछ ऐसे परिवार भी गया में हैं, जिनका यह खानदानी पेशा बन गया है. खास्ता तिलकुट के लिए प्रसिद्ध गया का तिलकुट झारखंड, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र सहित अन्य राज्यों में भेजा जाता है.
हजारों लोगों का जुड़ा है रोजगार
अभी से ही गया की सड़कों पर तिलकुट की सौंधी महक और तिल कूटने की धम-धम की आवाज आ रही है. गया में हाथ से कूटकर बनाए जाने वाले तिलकुट बेहद खस्ता होते हैं. गया के तिलकुट के स्वाद का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि दिसंबर व जनवरी महीने में बोधगया आने वाला कोई भी पर्यटक गया का तिलकुट ले जाना नहीं भूलता. एक अनुमान के मुताबिक, इस व्यवसाय से गया जिले में करीब सात हजार से ज्यादा लोग जुड़े हैं. स्थानीय लोगों के अनुसार, पहले तिलकुट व्यवसाय से तीन और व्यवसाय जिसमें ताड़ के पत्ते का दोना, बांस की बनी डलिया और लकड़ी का बक्सा और कागज का ठोंगा जुड़ा था. तिलकुट के साथ इन चीजों को इसलिए जोड़ा गया था, क्योंकि तिलकुट पर थोड़ा भी दबाव पड़ने पर वह चूर हो जाता था, परंतु अब इनकी जगह पॉलिथीन और कूट के डब्बे ने ले लिया है.

Monday, November 27, 2017

इस ठंडी में हॉट गुलाबजामुन के लिए पहुंचिए बिहार की सबसे बड़ी इलेक्ट्राॅनिक मंडी



पटना.
गुलाब जामुन का इतिहास उतना ही दिलचस्प है जितना इसका स्वाद. कोई कहता है कि यह फारस से आया तो कोई बताते हैं कि तुर्की से पहले पहल आया. कई इतिहासकार कहते हैं कि मुगल बादशाह शाहजहां के लिए भोजन बनाने वाला महाराज ने एक प्रयोग के तौर पर गुलाब जामुन का इजाद किया था. दक्षिण एशिया में पहली बार मध्य एशिया के तुर्की आक्रमणकारियों द्वारा गुलाब जामुन को पेश किया गया था. गुलाब जामुन असल में पर्शियन नाम है. उसमें गुल का मतलब होता है फूल और जामुन का मतलब होता है पानी. दक्षिण एशिया में इसे गुलाब जामुन के ही नाम से जानते हैं लेकिन अरब और ईरान में इसे लुक़मत अल क़ादी कहते हैं. लुक़मत अल क़ादी आटे से बनाया जाता है. आटे की गोलियों को पहले तेल में तला जाता है फिर शहद की चाशनी में डुबा कर रखा जाता है फिर इसके ऊपर चीनी छिड़की जाती है लेकिन भारत में शहर दर शहर इसके बनाने के तरीके एक समान हैं.
इस ठंडी में हॉट गुलाब जामुन के लिए पहुंचिये इलेक्ट्रॉनिक सामानों की सबसे बड़ी मंडी
अपने बिहार में भी कई जगह के गुलाब जामुन प्रसिद्ध हैं लेकिन आज राजधानी के बाकरगंज का सौंधा और रसीला गुलाब जामुन चखिए. बाकरगंज यूं तो राज्य की सबसे बड़ी इलेक्ट्रॉनिक मार्केट की मंडी है लेकिन यहीं पर रामसेवक और गोपाल प्रसाद का खास गुलाब जामुन बेहद प्रसिद्ध है. अशोक राजपथ और गांधी मैदान की ओर आने वाले लोग इनके स्वाद के खूब कद्रदान हैं. 1965 से यहां पर दो पैसे में मिलने वाला गुलाब जामुन आज 7 रुपये प्रति पीस कीमत का हो गया है. आलमगंज, पटना सिटी से चलकर आये रामसेवक प्रसाद ने यहां छोटी सी दुकान लगायी जो अब उनके पुत्र और नाती पोते संचालित कर रहे हैं. रोज तीन सौ से चार सौ पीस गुलाब जामुन की बिक्री बहुत आराम से हो जाती है. रामसेवक यादव के पुत्र गोपाल प्रसाद यादव कहते हैं कि छेना, खोया और मैदा के साथ शक्कर की पतली चाशनी बस आपके जिह्वा पर रस घोल देगी. खोया अधिक रहने के कारण सौंधा स्वाद यहां आने को मजबूर कर देता है. अशोक राजपथ में बीएन कॉलेज, पटना कॉलेज, पटना साइंस कॉलेज से लेकर एनआइटी तक इनके रेगुलर खरीदार हैं और बाकरगंज बाजार में रोज दूर दूर से आने वाले ग्राहक भी यहां का पता नहीं भूलते. इसके साथ ही व्यवहार न्यायालय और कलेक्ट्रेट के कर्मचारी इस स्वाद के कद्रदान हैं.
प्रभात खबर में 26 नवंबर 2017 को प्रकाशित
http://epaper.prabhatkhabar.com/c/24041353

Saturday, November 18, 2017

आप भी लीजिए शेखपुरा की ''छेना मुरकी'' की स्वादिष्ट ''फिरकी''

-पनीर से बनती है छेना मुरकी, स्वाद के दीवाने सउदी अरब तक
पटना.

शेखपुरा भले 31 जुलाई 1994 में मुंगेर से टूट कर नया जिला बना लेकिन यहां एक बेहतरीन स्वाद 75 साल से जिंदा है. यह स्वाद छेना मुरकी का है. इसमें साॅफ्ट पनीर है, मिठास है और उस पर जबरदस्त स्वाद है जो एक बार में रस घोल जाती है. जब आप बिहार के इस दूसरे सबसे छोटे जिले में चाहे जिस भी रास्ते से प्रवेश करेंगे तो छोटी-छोटी पहाड़ियां आपका स्वागत करती हैं. यहां की पहाड़ियां खनन के कारण लगातार छोटी होती जा रही है लेकिन यह भी सच्चाई है कि यही खनन यहां की जिंदगी को गति भी देती है. क्रशर की कर्कश आवाज आपके कानों को नहीं भाती है लेकिन यहां के छेना मुरकी का स्वाद इतना भाता है कि इसकी खुशबू सऊदी अरब तक फैलती है. यदि आप बिहारशरीफ के रास्ते से बरबीघा होते हुए शेखपुरा आएंगे तो यहां के कटरा चौक पर सूरज हलवाई के साथ आधा दर्जन अन्य दुकानदार अपनी स्पेशल छेना मुरकी के साथ दुकान सजाए मिलेंगे. 200 रुपये किलो मिलने वाली यह मिठाई इतनी खास है कि शाम तक सभी मिठाई खत्म हो जाते हैं. इसकी प्रसिद्धि ऐसी है कि हज यात्री अपने साथ बतौर संदेश इसे सऊदी अरब अपने चाहने वालों तक ले जाते हैं.
सॉफ्ट पनीर को चासनी में खौलाकर बनायी जाती है छेना मुरकी
सत्तर वर्षीय सूरज गुप्ता बताते हैं कि उनके पिताजी गणेश हलवाई ने इस स्वाद का ईजाद किया था. 75 साल से यह मिठाई यहां बेची जा रही है. इस स्वाद को अंग्रेज अधिकारी भी पसंद करते थे. उन्हें याद है कि वे 8 रुपये प्रति किलो की दर से इस मिठाई को बेचना शुरू किया उस वक्त 60 पैसे प्रति किलो दूध मिलता था. वे कहते हैं कि भैंस के गाढ़े दूध से ही वे पनीर निकालते हैं. चार किलो दूध से एक किलो सॉफ्ट पनीर निकाला जाता है. जिसे लोग पहली नजर में छेना कहते हैं. इसके नाम के पीछे भी यही कारण है. इस पनीर को चीनी की पतली चासनी में खौलाया जाता है और उसके बाद छानकर निकाल दिया जाता है. सूखने के बाद पनीर पर चासनी का हल्का लेप बनकर चढ़ जाता है और उसके बाद गर्मागर्म परोसा जाता है. इसकी खासियत यह है कि सात दिनों तक यह खराब नहीं होता है तो इसे आप स्टोर कर भी रख सकते हैं. अगली बार अाप भी यदि शेखपुरा आइए तो छेना मुरकी की स्वादिष्ट फिरकी जरूर लीजिए.



Saturday, November 11, 2017

टेस्ट ऑफ बिहार : स्वाद व सेहत की डली, ब्रह्मपुर के गुड़ की लजीज लड्डू-जलेबी

- शाहपुर-भोजपुर का बेमिसाल स्वाद है गुड़ से बनी जलेबी और गुड़ के शीरे में ही बनी बूंदी लड्डू
पटना.

आपने शक्कर की जलेबी को खूब खाई होगी लेकिन क्या कभी गुड़ के शीरे में बनी हुई जलेबी चखी है? स्वाद में लजीज और सेहत के लिए गुणकारी यह बेमिसाल स्वाद आपको बिहार के शाहपुर-भोजपुर इलाके में विशेष तौर पर मिलेगी. इस इलाके में गुड़ की जलेबी और गुड़ के ही शीरे में बने बुंदी लड्डू के कारीगर भी मिलते हैं और उसके कद्रदान भी. भोजपुर जिले में स्थित बाबा ब्रह्मेश्वर नाथ की नगरी ब्रह्मपुर की गुड़ की जलेबी और बूंदी लड्डू शाहपुर या यूं कहे पूरे भोजपुर में उपलब्ध है पर ब्रह्मपुर के सामने सब फीके हैं. यहीं पर गुड़ के शीरे में डूबे हुए बूंदी से निर्मित लड्डू भी मिलता है. यहां शंकर मिष्ठान्न भंडार की इस मामले में खासी पहचान है.
मंद आंच पर तलने के बाद बनता है शीरा
कारीगर शंकर कहते हैं कि शुद्ध देसी तरीके से लकड़ी या कोयले के मंद आंच पर तलने के बाद गुड़ की चासनी में डुबोयी जलेबी का स्वाद निराला होता है. उसी प्रकार शुद्ध चने के बेसन की बुंदिया को गुड़ की चासनी में पकाकर सौंफ इलायची के साथ मिक्स कर लड्डू बनाया जाता है जो एक महीने तक खराब नहीं होता है. ब्रह्मपुर शाहपुर में गुड़ की जलेबी और लड्डू को लोग शुद्धता और स्वाद के साथ ही सेहत के लिए बतौर संदेश दूर दूर भेजते हैं.
सर्दियों में शरीर को अंदर से गर्म रखता है यह स्वाद
आमतौर पर जलेबी और बूंदी में शक्कर के शीरे का प्रयोग होता है. गुड़ से बने जलेबी और लड्डू की तासीर गर्म होती है जिसकी वजह से यह सर्दी से बचाती है और शरीर को अंदर से गर्म भी रखती है. पीढ़ीयों से कई परिवार इस पेशे से जुड़े हुए हैं, जिनके खानदानी दुकान खासे मशहूर हैं. स्वाद के कद्रदान विनय चतुर्वेदी कहते हैं कि वैसे तो गुड़ सेहत व आयुर्वेद के दृष्टिकोण से प्राचीन मिठास की वस्तु है जब इससे जलेबी का निर्माण होता है तो इसका जवाब नहीं. इसी तरह लड्डू भी बहुत स्वादिष्ट होता है. इस स्पेशल टेस्ट को एक बार जरूर चखना चाहिए.

टेस्ट ऑफ बिहार खाजा, अनारसा, चिक्की पर अब 18 नहीं केवल 5% टैक्स

पटना : 
अब अपने बिहार की प्रसिद्ध मिठाई खाजा, अनारसा और चिक्की का स्वाद थोड़ा और गहरा होगा क्योंकि मिठाईयों पर जीएसटी कर की दर 18 से घटा कर 5 फीसदी कर दी गयी है. यानी अब ये मिठाईयां और सस्ती मिलेगी. इसके साथ ही पास्ता, कॉटन और जूट के हैंडबैग पर यह टैक्स 12 फीसदी कर दिया गया है. बिहार के उपमुख्यमंत्री सह वित्त मंत्री सुशील कुमार मोदी ने कहा कि कर की दर घटाने से देश को करीब 20 हजार करोड़ राजस्व की कमी होगी, जिसे प्रभावी कर संग्रह द्वारा पूरा किया जा सकेगा. उन्होंने कहा कि उपभोक्ताओं को लाभ पहुंचाने के लिए कांग्रेस की बयानबाजी के बावजूद राजनीति से ऊपर उठ कर सर्वसम्मति से यह निर्णय लिया गया. सुशील मोदी ने बताया कि प्लाईवुड, वाश बेसिन, सेनिटरी व गृहनिर्माण से जुड़े अन्य सामान, स्टोव, ब्लेड, अग्निशमन यंत्र, मैट्रेस, हाथ घड़ी, वैक्यूम फ्लॉश आदि घरेलू उपयोग की वस्तुओं पर अब 28 की जगह 18 प्रतिशत कर लगेगा. इसके अलावा जीएसटी फिटमेंट कमेटी ने 62 और वस्तुओं पर कर की दर कम करने की अनुशंसा की थी, उनमें 12 और नये वस्तुओं को शामिल किया गया. इनमें चॉकलेट, शैंपू, डिटरजेंट पाउडर, मार्बल और सौंदर्य प्रसाधन की सामग्री शामिल हैं.

Thursday, November 9, 2017

टेस्ट ऑफ यूपी@बिहार: सोनपुर मेले में सौ साल से बिखर रही यूपी के पापड़ी मिठाई की खुशबू

-यूपी के बहराइच से बेचने के लिए आ रहा एक दर्जन मुस्लिम परिवार
सोनपुर.


सोनपुर मेले में मुख्य बाजार से चिड़िया बाजार रोड पर पश्चिम दिशा में बढ़िए तो यहां यूपी के बहराइच के कई पापड़ी वाले दिखाई देंगे. यह पापड़ी की कई वैराइटी के साथ-साथ हलवा पराठा और मियां मिठाई बेचते हैं. इन सारी मिठाईयों का यहां शतक वर्ष चल रहा है. बहराइची हलवा-पराठा ऐसे कि देखते ही जी ललच जाए. दाम 140 रुपए किलो. बेसन की स्पेशल पापड़ी 80 रुपये किलो और खजूर की पापड़ी भी इतनी ही कीमत में. बहराइच और उसके आसपास के दो दर्जन से अधिक बुजुर्ग युवक मेले में हलवा-पराठा बेच रहे हैं. बहराइच से आये वारिस अली जिनकी उम्र 75 साल है वे कहते हैं कि दो पुश्त से वे यहां आ रहे हैं. उनकी उम्र ही निकल गयी इसके पहले इनके पिता और दादा भी सोनपुर आते थे. इनके अलावा बहराइच के तीन और परिवार यहां इस कारोबार के लिए पहुंचते हैं.
मो मुनिम, रहिस अली और सईद अहमद ये भी चालीस सालों से पहुंच रहे हैं. वारिस अली कहते हैं कि पहले बहराइच के रइस अली पापड़ी लेकर आए थे और उसके बाद तो वहां से कई आने लगे. खास बात ये कि ज्यादातर दुकानों पर रईस अली व वारिस अली पापड़ी वाले के नाम ही अंकित हैं. अभी मेले में पापड़ी की कुल एक दर्जन से ज्यादा दुकानें हैं. नखास मोड़ पर बहराइची हलवा-पराठा बेचे रहे रहिस अली बताते हैं, वे ग्यारह साल की उम्र से इस मेले में आ रहे हैं. पहले दादा के साथ तो बाद में पिता के साथ. पिछले पचास वर्षों से खुद आ रहे हैं. घर चलाने लायक आमदनी हो जाती है. उत्तरप्रदेश के दूसरे मेलों में भी जाते हैं. बरसात के बाद ही हम इस मेले में आने की तैयारी करने लगते हैं.
आपका मुंह खट्टा कराएंगे स्वाद में निराले झारखंड के स्पेशल अचार

पहले जहां चिड़िया बाजार लगता था अब वहां पर झारखंड के विभिन्न शहरों से आये लोग आपके मुंह में पानी ला देंगे. इसका कारण यह है कि यहां पर 20 तरह के अचार मिल जायेंगे. आपको आंवले का पंसद है या ओल का? बांस का या फिर आम का. सभी मिलाकर चाहिए तो वह भी हाजिर है. कीमत है 120 रुपये किलो से लेकर 150 रुपये तक. इस कीमत में आपके लिए गोड्डा, साहेबगंज, चतरा और दुमका से पहुंचे अचार के स्पेशल विशेषज्ञ मुंह खट्टा कराएंगे. बराहाट से आये जयबहादुर कहते हैं कि आप जो भी अचार चाहेंगे मिल जायेगा. हमारे पास कम से कम अचार और मुरब्बे के एक दर्जन से ज्यादा वेराइटी रहती है. गोड्डा के राकेश कहते हैं कि पहले तो वह इलाका भी बिहार ही ना था. यहां आकर कभी अलग नहीं लगता है. आपसी सद्भाव व भाईचारे में इस मेले जैसी कहीं कोई संस्कृति नहीं. लगता ही नहीं कि हम अपने घर से बाहर हैं.

Sunday, November 5, 2017

जिह्वा से सीधे दिल तक पहुंचेगा आरा के खुरमा का स्वाद



-यह लजीज स्वाद केवल आरा में ही मिलेगा साहब
पटना
.
बिहार का आरा शहर अनेक मामलों में खास रहा है. प्रसिद्ध इतिहासकार बुकानन ने बताया था कि इस नगर का नाम आरा इस कारण पड़ा क्योंकि यह गंगा के दक्षिण में ऊंचे स्थान पर स्थित था. आड़ या अरार में होने के कारण इस शहर का नाम 'आरा' रखा गया. 1857 के पहले स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख सेनानी बाबू वीर कुंवर सिंह की कार्यस्थली होने का गौरव भी इस नगर को प्राप्त है. आरा से ही प्रसिद्ध गणितज्ञ डॉ वशिष्ठ नारायण, जगजीवन बाबू, रामसुभग सिंह जैसी हस्तियां जुड़ी रही है. इसी शहर में एक खास मिठाई खुरमे का स्वाद भी इतना ही खास है. केवल छेना और चीनी से बनने वाली ये मिठाई आरा के अलावा बिहार में भी कहीं और नहीं मिलती है.
देखने में अनगढ़ लेकिन स्वाद रसीला
देखने में बिल्कुल अनगढ़ की तरह दिखता है लेकिन अंदर से मिठास के साथ साथ इतना रसीला होता है कि स्वाद जिह्वा से सीधा दिल में उतर जाये. बिल्कुल भोजपुरी जवानों की तरह. भोजपुर के लोग बातचीत में जैसे ठेठ होते हैं अंदर से उतने ही कोमल, मीठे तथा रसीले होते हैं. आरा की यह बहुत ख़ास और लजीज मिठाई यदि आपने नहीं चखी है तो समझिये कि एक बेहतरीन बिहारी टेस्ट से वंचित हैं.
कीमत है महज 250 रुपये प्रति किलो
आरा के गौसगंज मुहल्ले में इस मिठाई को बनाने वाले काफी कारीगर हैं. सुमन चौरसिया बताते हैं कि शुद्ध दूध के छेना से यह मिठाई बनायी जाती है. जिसमें हल्के चीनी का प्रयोग किया जाता है और फिर उतनी ही हल्की चासनी बनायी जाती है. छेने को चौकोर या तिकोर साइज देकर इसे हल्का तलकर अंतिम रूप दिया जाता है और चासनी में थोड़ी देर डुबोने के बाद निकाल लिया जाता है. इसके बाद हम इसे 250 रुपये प्रति किलोग्राम बेचते हैं. महंगाई के कारण पिछले साल भर से यह रेट है नहीं तो डेढ़ सौ से दो सौ रुपये ही प्रति किलो इसे बेच देते थे. इस मिठाई की प्रसिद्धि बिहार के साथ ही देश के विभिन्न हिस्सों में है. दिल्ली के प्रगति मैदान में लगने वाले विश्व व्यापार मेले में भी इसका स्टॉल लगता है.
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Thursday, November 2, 2017

वर्ल्ड फूड इंडिया में दुनिया चखेगी बिहारी मूंग और मसूर का टेस्ट



-शुक्रवार से बिहारी किसानों के उत्पाद का होगा प्रदर्शन
-3 से 5 नवंबर तक होगा आयोजन
पटना

खांटी बिहारी टेस्ट से अगले तीन दिनों तक दुनिया भर के स्वाद विशेषज्ञ परिचित होंगे. 3 से 5 नवंबर तक नयी दिल्ली में भारत सरकार द्वारा आयोजित हो रहे वर्ल्ड फूड इंडिया में बिहार के किसानों के उत्पाद का प्रदर्शन हो रहा है. इस कार्यक्रम का उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी करेंगे. बिहार के 13 किसान प्रोड्यूसर कंपनी कौशल्या फाउंडेशन के मैनेजिंग ट्रस्टी कौशलेंद्र के नेतृत्व में अपने कृषि उत्पादों का स्टाल लगायेंगे. इनके मुख्य उत्पाद शामिल होंगे मसूर, मूंग, धान, गेहूं, मक्का, आलू, प्याज, आम और शाही लीची. इससे ना केवल बहुत सारी कंपनियां बिहार के फार्मर प्रोड्यूसर कंपनियों से जुड़ेगी और किसानों को उनके उत्पाद का सही खरीदार के साथ बड़ा बाजार भी मिलने के अवसर मुहैया होंगे. इससे अधिक आमदनी प्राप्त होगी साथ ही बिहार में खाद्य प्रसंस्करण एवं निवेश के अवसर बढ़ेंगे. कौशलेन्द्र ने बताया कि वर्ल्ड फ़ूड इंडिया 2017 में पूरी दुनिया से बड़े-बड़े कृषि कंपनियों के निदेशक आ रहे हैं, यह एक बहुत ही बढ़िया मौका होगा जब हमारे किसानों के उत्पाद को उनलोगों के सामने प्रदर्शित किया जायेगा.

क्या है वर्ल्ड फूड इंडिया?
वर्ल्ड फूड इंडिया विश्व स्तर की खाद्य प्रदर्शनी एवं सम्मेलन है, प्रदर्शनी सी-हेक्सागोन पार्क, इन्डिया गेट, नई दिल्ली एवं सम्मेलन विज्ञान भवन नयी दिल्ली में किया जायेगा. तीन दिन के इस कार्यक्रम में 20 से अधिक देशों से 50 से अधिक ग्लोबल सीईओ भाग लेंगे. 400 से अधिक स्टालों पर भारत के खाद्य उत्पादों का प्रदर्शन किया जायेगा.

Monday, October 30, 2017

टेस्ट_ऑफ_बिहार : नहीं भूलेंगे बिहारशरीफ की टेढ़ी मेढ़ी झिल्ली का सौंधा स्वाद


#TasteOfBihar4
-एक बार चखे तो फिर मगध का यह स्वाद सीधे दिल में उतर जायेगा
पटना.

10वीं शताब्दी में पाल राजवंश की राजधानी रहा नालंदा जिले का मुख्यालय बिहारशरीफ अपने समृद्ध इतिहास के लिए जाना जाता है. बिहारशरीफ़ में जहां एक विशाल बौद्ध बिहार ओदंतपुरी के अवशेष हैं, यहां तंत्रशास्त्र का विश्वविद्यालय भी था. इसी शहर में सांप्रदायिक सौहार्द के प्रतीक हजरत मखदूम साहब की मजार भी यहीं है. जो बिहारशरीफ 65 वर्ष की आयु में आये और 122 वर्ष की उम्र तक यहां शोषित पीड़ित दलित मानव समुदाय की सेवा में जीवन लगा दिया. इसी शहर में बिहार के कई स्वाद भी जिंदा हैं. हम शुरूआत मैदा और बेसन से बनने वाली झिल्ली जिसे लट्ठो भी कहते हैं, इसी से करते हैं. झिल्ली का सौंधा स्वाद लोगों को खूब आकर्षित करती है. बिहारशरीफ से गुजरनेवाले स्वाद के शौकीन इस झिल्ली में उलझे बिना नहीं रह पाते हैं.
गुड़ के साथ ही भूरा का होता है प्रयोग
मेदा और बेसन से तैयार होने वाला झिल्ली या लट्ठो का पहले अंगुली के अाकार के टेढ़ा मेढ़ा शक्ल दिया जाता है फिर इसे गुड़ या भूरा में लपेटा जाता है. इसके पहले मेदा या बेसन को अच्छी तरह गुड़ या भूरा में रिफाइन ऑयल के साथ भूना जाता है फिर उसे आकार देकर गर्म किया जाता है और अंत में ठंडा करने के बाद परोसा जाता है. इसका स्वाद करारे भूने बेसन के साथ हल्का मीठा होता है जो बुनियादी तौर पर नाश्ते की मिठाई मानी जाती है. बिहारशरीफ में बरसों से झिल्ली बनाने वाले कारीगर संतोष कुमार कहते हैं कि यह मगध का बहुत पुराना स्वाद है. यहां चीनी की चासनी से भूरा बनाने की परंपरा भी काफी पहले से है जो केवल यहीं मिलती है और इसका विभिन्न किस्म का प्रयोग ही झिल्ली के रूप में सामने आया है.
बेसन की झिल्ली ज्यादा बेहतर, सौ रुपये में मिलता है एक किलो
बेसन की झिल्ली का स्वाद ज्यादा बेहतर होता है क्योंकि यह करारा होता है वहीं मैदा थोड़े वक्त के बाद मुलायम हो जाता है तो स्वादहीन हो जाता है. अभी सौ रुपये किलोग्राम मिलने वाली झिल्ली को आप एयरटाइट कंटेनर में रखकर दस से पंद्रह दिनों तक चला सकते हैं. यह सुबह के नाश्ते के साथ ही दोपहर और शाम में भी प्रयोग किया जाता है. बिहारशरीफ से बाहर गुड़ की झिल्ली मिलती है जो आपको राजधानी में पटना हाइकोर्ट के सामने की पुरानी दुकान में मिल जायेगी और बिहारशरीफ से आये कारीगर इसे एकाध जगह पटना सिटी में भी बनाते हैं.
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Saturday, October 21, 2017

नवादा के पकरीबरावां के बरा की कुरकुराहट के क्या कहने

#TasteOfBihar3
पटना
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नवादा के पकरीबरावां प्रखंड में मिलने वाली मिठाई 'बरा' की प्रसिद्धि बिहार के साथ ही देश के विभिन्न प्रदेशों तक है. इस मिठाई के साथ पकरीबरावां का नाम कुछ इस कदर जुड़ा है कि लोग मशहूर बरा के नाम पर इस कस्बे का नाम रखे जाने की बात बताते हैं. इस बाजार से गुजरने वाले पर्यटक हो या तीर्थयात्री इस मिठाई का स्वाद चखना नहीं भूलते. पकरीबरावां की अनोखी मिठाई बरा का समृद्ध इतिहास रहा है. स्थानीय लोग बताते हैं कि आजादी के पूर्व दुल्लीचंद नामक कारोबारी द्वारा इस मिठाई का निर्माण शुरू किया गया था. स्वादिष्ट व खास्ता होने के कारण इसकी लोकप्रियता बढ़नी शुरू हो गयी थी.
इससे एक मशहूर कहावत भी जुड़ी हुई है कि उस समय इस मिठाई पर अगर एक रुपये का सिक्का गिरा दिया जाये तो वह मिठाई टूटकर कई भागों में बिखर जाता था. इसकी पुष्टि इसी कारोबारी परिवार के रवि शंकर पप्पू करते हैं. अभी भी दुल्लीचंद के कई परिवार इस व्यवसाय से जुड़े हुए हैं. इसके साथ ही मुख्यालय में कई दर्जनों दुकानें हैं. बरा मिठाई के कारोबार ने यहां कुटीर उद्योग का रूप ले रखा है.
पहले राष्ट्रपति राजेन बाबू ने भी चखा था स्वाद
कई मशहूर हस्तियों द्वारा इस मिठाई का स्वाद चखा जा चुका है और इसकी प्रशंसा भी हो चुकी है. यहां के दुकानदार बताते हैं कि 1961 ई में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डाॅ राजेन्द्र प्रसाद ने नवादा-कौआकोल मार्ग से सेखोदेवरा आश्रम जाने के क्रम में यहां रूककर इस बरा मिठाई का स्वाद चखे थे. तब उन्होंने इस मिठाई की भूरी-भूरी प्रशंसा भी की थी. इसके साथ ही अब्दुल गफ्फार खां और लोकनायक जय प्रकाश नारायण सहित कई महान विभूतियों ने इसका स्वाद लिया था. अभी यह मिठाई मात्र 80 रुपये प्रति किलो बिकती है. बरा की पुरानी दुकान रस महल के मालिक रविशंकर पप्पू ने बताया कि इसके अलावा शुद्ध घी से मिलने वाली मिठाई 250 रुपये प्रति किलो बिकती है, इसे शुद्ध घी में बनाया जाता है. महंगाई की मार से अब यह मिठाई डालडा और रिफाइन तेल से बनाई जाती है. फिर भी यह मिठाई अन्य मिठाईयों से स्वादिष्ट और सस्ती है.

Friday, October 20, 2017

सबसे पहले ग्लोबल ब्रांड बनेगा सिलाव का खाजा, फिर मनेर के लड्डू औैर गया के तिलकुट की बारी

-अभी तक केवल मधुबनी पेंटिंग, भागलपुरी सिल्क, सुजनी और खतवा कला को मिला है जीआइ टैग
-अब बिहार की पहचान बन चुके इन तीनों मिठाईयों को जीआई टैग दिलाने की तैयारी
पटना
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 सिलाव का खाजा
अब बिहार की पहचान बन चुके तीन प्रमुख मिठाईयां ग्लोबल ब्रांड बनेंगे. नालंदा के सिलाव का खाजा, पटना के मनेर का लड्डू और गया के तिलकुट  को जीआई टैग यानी जियोग्राफिकल इंडिकेशन टैग दिलाने की तैयारी चल रही है. बिहार सरकार का कला व संस्कृति विभाग इन तीनों मिठाईयों को जीआई टैग दिलाने के लिए प्रक्रिया शुरू कर चुका है. इसके लिए बिहार विरासत विकास समिति को जिम्मेवारी दी गयी है. विरासत विकास समिति ने इसके लिए कागजी प्रक्रिया शुरू कर दी है. कोलकाता में जीआइआर के दिल्ली और चेन्नई के अधिकारियों से वार्ता भी हो चुकी है. अब कागजी प्रक्रिया को पूरी कर चेन्नई स्थित हेड ऑफिस को भेजने की तैयारी चल रही है. इसके तहत जीआई टैग के लिए सुप्रीम कोर्ट में एफिडेविट प्रस्तुत किया जायेगा. वहां से आपत्ति मांगी जायेगी और यदि आपत्ति नहीं आयी तो फिर इन तीनों मिठाईयों को जीआई टैग मिल जायेगा. जीआई टैग के क्षेत्र में बिहार के मिठाईयों की यह पहली औपचारिक इंट्री होगी. अभी तक बिहार के हस्तकरघा उद्योगों को ही जीआई टैग मिला है जिसमें मधुबनी पेंटिंग, भागलपुरी सिल्क, सुजनी और खतवा कला जीआइ टैग से युक्त उत्पाद हैं.

 मनेर के लड्डू
दार्जिलिंग चाय को सबसे पहले मिला था जीआई टैग
आसाम के दार्जिलिंग की मशहूर चाय भारत में पहला जीआई टैग उत्पाद 2004-05 में बना था. उसके बाद से मई 2017 तक इस सूची में कुल 295 उत्पाद शामिल हो गये हैं. जिसमें बिहार के चार हस्तकरघा उत्पाद शामिल हैं. भारत ने विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के सदस्य के रूप में भौगोलिक संकेतों का माल (पंजीकरण और संरक्षण) अधिनियम, 1 999 में लागू किया था.  यह कानून 15 सितंबर 2003 से प्रभावी है. जीआई को अनुच्छेद 22 (1) के तहत परिभाषित किया गया है. चेन्नई स्थित भौगोलिक उपदर्शन रजिस्ट्री (जीआइआर) जीआई टैग प्रदान करती है.
क्या है जीआई टैग?
 गया के तिलकुट
जीआई यानी जियोग्राफिकल इंडिकेशन किसी उत्पाद की पहचान बताने वाली ग्लोबल टैगिंग होती है. जो इसके अधिकृत मालिक या प्रयोगकर्ता को जीआई के टैग लगाने का कानूनी अधिकार प्रदान करता है. गैर-अधिकृत व्यक्ति इसका प्रयोग नहीं कर सकता. जीआई टैग को ‘विश्व व्यापार संगठन’ से भी संरक्षण मिलता है. हर उत्पाद की विशिष्ट पहचान में उसका उद्भव, उसकी गुणवत्ता, प्रतिष्ठा तथा अन्य विशेषताएं शामिल होती है. जीआई दो प्रकार के होते हैं. पहले प्रकार में वे भौगोलिक नाम हैं, जो उत्पाद के उद्भव के स्थान का नाम बताते हैं जैसे दार्जिलिंग चाय आदि. दूसरे  गैर-भौगोलिक पारंपरिक नाम, जो यह बताते हैं कि उत्पाद किसी एक क्षेत्र विशेष से संबद्ध है. जैसे- अल्फांसो, बासमती आदि. अधिकृत उपयोगकर्ताओं के अलावा किसी भी अन्य को लोकप्रिय उत्पाद नाम का उपयोग करने की अनुमति नहीं मिलती है. 
''सबसे पहले सिलाव के खाजा को मिलेगा जीआइ टैग''
सबसे पहले सिलाव का खाजा जीआई टैग से जुड़ेगा. इसके बाद मनेर के लड्डू सहित गया के तिलकुट जैसे व्यंजनों की बारी आयेगी. जीआइआर के दिल्ली और चेन्नई के अधिकारियों के साथ कोलकाता में हुई बैठक में इसपर औपचारिक सहमति हो गयी है. चेन्नई स्थित हेड ऑफिस को सभी जरूरी कागजात मुहैया कराने के लिए हम सब की तैयारी चल रही है. इसके बाद हमें जीआई टैग मिल जाएगा.
-विजय कुमार चौधरी, एक्जीक्यूटिव डायरेक्टर, बिहार विरासत विकास समिति 
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Saturday, October 14, 2017

पीएम मोदी ने चखा कचौरी-बालूशाही के साथ सिलाव का खाजा

-पीएम के भोजन की लिस्ट में टेस्ट ऑफ बिहार का रखा गया खास ख्याल
-पटना से मोकामा जाने के क्रम में पटना की मशहूर निमकी और चीनिया बादाम भी दिया गया
रविशंकर उपाध्याय, पटना

नमकीन कचौरी-बालूशाही के साथ सिलाव का मशहूर खाजा. इस बीच चना और चूड़ा के भूंजा के साथ चीनिया बादाम का भी टेस्ट और अंत में नारियल का पानी. प्रधानमंत्री मोदी की शनिवार को हुई बिहार यात्रा पर उनके नाश्ते और भोजन में बिहारी टेस्ट छाया रहा. उन्हें खास तौर पर बिहारी डिश पेश किया गया. हालांकि पटना एयरपोर्ट से विश्वविद्यालय जाने तक उन्होंने कुछ भी नहीं खाया लेकिन पटना से मोकामा हेलीकॉप्टर से जाने के क्रम में उनके साथ विशेष तौर पर सभी बिहारी डिश भेजे गये. जिसे उन्होंने रास्ते में चखा. जिला स्वास्थ्य विभाग की ओर से प्रधानमंत्री के लिए नाश्ते में जहां बिहारी स्वाद को प्रमुखता से रखा गया वहीं भोजन में फल और हल्के भोजन परोसे गये. पीएम को चाय और कॉफी के साथ अदरक जूस भी दिया गया.
साबूदाने और वेजिटेबल की खिचड़ी के साथ शकरकंद का अचार
प्रधानमंत्री के लिए भोजन की निगरानी करने वाले मुख्य डॉक्टर रजनीश ने बताया कि भोजन में तवा रोटी, मीठी पराठा, मटर का पुलाव और साबूदाने की खिचड़ी के साथ राजमा, कढ़ी, पनीर टिक्का, रोस्टेड गोबी-बिन्स, शकरकंद-आम का अचार, पापड़ और मीठे में राजभोग और मिल्क केक भी रखा गया था. ताजे फलों के साथ ही अमूल का छाछ और इलायची भी प्रधानमंत्री के खास पसंद के मद्देनजर मेनू में शामिल थे.
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Monday, October 9, 2017

टेस्ट ऑफ बिहार-2 : गिरियक की रसभरी में डूब ना गये तो फिर कहिएगा

पटना. पटना-रांची हाइवे पर बिहारशरीफ और नवादा के बीच में एक छोटा सा कस्बा है, गिरियक. बिहारशरीफ से 19 किमी और नवादा से 17 किमी की दूरी पर स्थित यह प्रखंड मुख्यालय ऐतहासिक रूप से प्राचीन मगध साम्राज्य गिरिव्रज का हिस्सा रहा है, जिसका अपभ्रंश आज गिरियक हो गया है. वह गिरियक, जहां मगध के राजे रजवाड़े तफरीह करते हुए पंचाने नदी की कल कल बहती धारा देखने के लिए पहुंचते थे. बौद्धों के जमाने में यहां की पहाड़ी पर दुनिया का सबसे ऊंचा स्तूप भी बनाया गया था, जिसकी पहचान पांच छह साल पहले ही हुई है. इसके बाद यह कस्बा ऐतिहासिक रूप से इस वजह से याद किया जाता है क्योंकि 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में जन आंदोलन को दबाने के लिए अंग्रेज सरकार ने जिन दो जगहों पर पहली बार हेलीकॉप्टर से बम गिराया था उसमें इलाहाबाद के नैनी के बाद गिरियक भी शामिल था. उसी गिरियक की पहचान अब स्वादिष्ट रस भरी और रस मलाई के रूप में है. यहां की रसभरी इतनी खास है कि रोज हाइवे से गुजरने वाले स्वाद के शौकीन जरूर चखते हैं. आधा दर्जन मिठाई कारोबारी का फोकस रसमलाई और रसभरी पर है. 30 रुपये में दो रसभरी इतनी आनंदित कर देगी कि आप चार तो जरूर खाएंगे. आपके पास रसमलाई का भी ऑप्शन है जो 25 में दो आती है. यही नहीं यदि आप डायबिटीज की बीमारी से ग्रस्त हैं तो आपके लिए सुगर फ्री रसमलाई और रसभरी भी उपलब्ध है. केवल यह क्रमश: 40 और 30 रुपये में दो पीस आती है.
नहीं खरीदते हैं पैकेट वाला दूध, केवल गाय-भैंस के दूध का होता है प्रयोग

यहां के प्रसिद्ध आनंद मिष्ठान्न भंडार के ऑनर आनंद कुमार बताते हैं कि रसमलाई बनाने में कारीगर पैकेट के दूध का प्रयोग नहीं करते हैं. इसके लिए उन्होंने आसपास के विश्वसनीय दूध विक्रेताओं पर ही भरोसा करते हैं जो शुद्ध दूध मुहैया कराते हैं. उस दूध को वे केसर डालकर उबालते हैं. केसर के पीलापन आ जाने के बाद इसमें कम चीनी का प्रयोग करते हैं. इसके साथ ही जब छेना तैयार हो जाता है तो उसे ड्राइ फ्रूट डाल कर दोबार गर्म करते हैं. इसके कारण रसभरी काफी रसीली और स्वादिष्ट होती है जबकि रसमलाई में केसर और ड्राइफ्रूट का इस्तेमाल नहीं करते हैं बाकी यही तरीका होता है रस मलाई बनाने का. पूरे कस्बे में राेज लगभग 1000 पीस रसभरी और रसमलाई बिकती है जो कई बार बढ़कर 2000 भी हो जाता है.
राजगीर महोत्सव की शान बन चुका है रसभरी
यहां की रसभरी राजगीर महोत्सव की शान बन चुकी है. 2014 में तत्कालीन डीएम पलका साहनी ने इसे बेस्ट डिश ऑफ बिहार घोषित किया था. इसके विक्रेताओं को प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित भी किया गया था. राजगीर महोत्सव के अलावे नालंदा सृजन दिवस और पावापुरी मेडिकल कॉलेज में आयोजित स्वीट डिश फेस्टिवल में भी रसभरी का जलवा दिख चुका है. रसमलाई के विक्रेता रमेश कुमार कहते हैं कि अब हम इसका प्रसार राजधानी तक करने की रणनीति बना रहे हैं ताकि पूरा प्रदेश इसका स्वाद चख सके जो अभी केवल रांची-पटना हाइवे से गुजरने वाले लोगों को ही मुहैया हाे रही है.
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Monday, September 25, 2017

नालंदा के निश्चलगंज का पेड़ा नहीं खाया, तो क्या खाया

रविशंकर उपाध्याय, पटना :
मथुरा के पेड़े का नाम तो अापने खूब सुना होगा, लेकिन क्या आपने कभी नालंदा के एकंगरसराय प्रखंड के छोटे से कस्बे निश्चल गंज का पेड़ा खाया है क्या? मावा या खोआ से बनी मिठाइयां बिहार में भी बहुत लोकप्रिय हैं और पेड़ा मावे से बनने वाली मिठाई में पहले नंबर पर है. बिहार में नालंदा के निश्चलगंज  के पेड़े इस कदर प्रसिद्ध है कि यह शब्द मगही भाषा में अलंकार के  रूप में प्रयुक्त होता है. ठीक उस तरह जैसे पेड़ा मतलब  निश्चलगंज का पेड़ा. पेड़े के लिए निश्चलगंज नालंदा में एक ट्रेडमार्क है, जो पूरे प्रदेश में धीरे धीरे प्रसिद्ध हो रहा है. यदि आप नालंदा भ्रमण के लिए जाते हैं तो आपको बिहारशरीफ से एकंगरसराय स्टेट हाइवे पर यह छोटा सा कस्बा मिलेगा, जहां पेड़ा खरीद सकते हैं. इस रूट पर यात्रा के दौरान निश्चलगंज के बड़े-बड़े पेड़े व निर्यात क्वालिटी के पेड़े आगंतुकों का ध्यान खूब आकर्षित करते हैं. ये बसों से लेकर छोटी कारों में खूब बेचे जाते हैं. यहां से गुजरने वाले लोग यहां का पेड़ा बतौर संदेश खरीदते हैं. 
25 ग्राम से 25 किलो तक के पेड़े 
आप यदि यहां की प्रसिद्ध दुकान राकेश  जी और सुनील जी के पेड़े का एक टुकड़ा भी चखते हैं, तो कम से कम चार पेड़े से कम खाकर तो रह ही नहीं पायेंगे. यहां 25 ग्राम से लेकर 25 किलो तक का पेड़ा बनता है. राकेश बताते हैं कि यहां के पेड़े गाय और भैंस के दूध से ही बनाये जाते हैं.  इसे बनाने के लिए मावा और भूरा का उपयोग होता है. दानेदार मावा का ही इस कारण प्रयोग होता है, ताकि पेड़े का स्वाद बरकरार रहे. पेड़े  बनाते समय मावा को अधिक से अधिक भूना जाता है. सुनील कहते हैं कि  मावा को जितना अधिक भूनेंगे बने हुए पेड़ों की लाइफ उतनी ही अधिक होगी.  मावा भूनते समय बीच बीच में थोड़ा थोड़ा दूध या घी डालते रहते हैं, जिससे इसे अधिक भूनना आसान हो जाता है. भूनते समय मावा जलता नहीं और मावा का कलर हल्का ब्राउन हो जाता है. पेड़ा का स्वाद आपको भुलाए नहीं भूलेगा. अभी यहां 180 रुपये प्रति किलो से लेकर 360 रुपये किलो तक के पेड़े मिलते हैं.
पेड़े की प्रसिद्धि राज्य के सभी राजकीय मेले तक
इसकी प्रसिद्धि सभी राजकीय मेले से लेकर राज्यस्तरीय कार्यक्रमों तक है. राजगीर महोत्सव हो या बौद्ध महोत्सव, पटना का सरस मेला हो, सूफी महोत्सव या फिर बराबर का महोत्सव. सभी में निश्चलगंज के मेले की धमक दिखाई देती है. हालांकि अभी तक इसकी प्रसिद्धि राज्य के बाहर नहीं हो पायी है इसके कारण ब्रांडिंग नहीं हो पायी है. कारीगर बताते हैं कि उन्होंने अब इंटरनेट का सहारा लिया है, जिससे देश के विभिन्न हिस्सों के साथ ही विदेशों में भी बिक्री हो. वे अब फेसबुक और ट्वीटर पर भी जुड़ कर अपना प्रचार प्रसार कर रहे हैं. सुनील और विजय ने बताया कि पटना के बड़े मॉल में वे इसके लिए दुकानों की तलाश की जा रही है, ताकि प्रदेश के सभी हिस्से के लोग पेड़े का लाभ ले सकें.
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