Friday, November 30, 2018

सोनपुर मेला: सात दिन, सात विदेशी सैलानी और सात बिहारी जायका


-विदेशी टूरिस्टों को भा रहे बिहारी स्वाद, तवा रोटी और लिट्टी चोखा कर रहे पसंद 
रविशंकर उपाध्याय®सोनपुर 
सोनपुर के पर्यटक ग्राम में सात दिनों में पहुंचे सात सैलानियों को बिहार के सात जायके खूब पसंद आये हैं. वे ना केवल तवा राेटी को पसंद कर रहे हैं बल्कि दाल-भात और सब्जी, लिट्टी चोखा, मखाने की खीर, गुलाबजामुन और बालूशाही का स्वाद भी उन्हें खूब भा रहा है. सात दिनों में यासुनारी नाकामुरा, योजो ओकामोटो, फुकीनो अदाची, हाजीमी ताशीरो, यूकियो वातानाबे, तकानो ओनिशी, माकिको मात्सुदा ने यह सभी स्वाद चखे हैं. विजिट बिहार के एमडी प्रकाश चंद्र यहां आहार नामक रेस्टोरेंट चलाते हैं. वे कहते हैं कि बिहारी स्वाद उन्हें खूब पसंद आया. सूप और नूडल्स के नाश्ते के बाद उन्होंने रोटी वह भी तवा वाला पसंद किया था. चावल प्लेन भी लिया और पीली दाल के साथ पुलाव भी खाया. वे मछली साथ में लाये थे. इंस्टैंट फूड की तरह. सब्जी और चिकेन कढ़ी के साथ मंचूरियन, पालक पनीर का भी स्वाद लिया. पर्यटन विभाग द्वारा तैयार स्वीस कॉटेज के प्रभारी प्रबंधक सुमन कुमार और सहायक प्रबंधक दीपक कुमार बताते हैं कि इस बार विदेशी सैलानियों की संख्या बहुत कम है. पिछली बार 24 विदेशी सैलानी और 16 देसी सैलानी आये थे. वहीं 2016 में 106 पर्यटक आये थे जिसमें 75 फीसदी विदेशी थे. जापान से सबसे ज्यादा, इटली, नीदरलैंड और यूरोप के सैलानी यहां आते हैं. शुरुआती दो सप्ताह में ही विदेशियों की आमद होती है उसके बाद वे नगण्य हो जाते हैं. यानी उनकी मानें तो इस बार पर्यटन विभाग के लिए पिछला आंकड़ा बरकरार रखना एक बड़ी चुनौती से कम नहीं है. 

100 साल से यूपी के बहराईच से आ रहे पापड़ी मिठाई निर्माता
सोनपुर मेले में मुख्य बाजार से चिड़िया बाजार रोड पर पश्चिम दिशा में बढ़िए तो यहां यूपी के बहराइच के कई पापड़ी वाले दिखाई देंगे. यह पापड़ी की कई वैराइटी के साथ-साथ हलवा पराठा और मियां मिठाई बेचते हैं. इन सारी मिठाईयों का यहां शतक वर्ष चल रहा है. बहराइची हलवा-पराठा ऐसे कि देखते ही जी ललच जाए. दाम 140 रुपये किलो. बेसन की स्पेशल पापड़ी 80 रुपये किलो और खजूर की पापड़ी भी इतनी ही कीमत में. बहराइच और उसके आसपास के दो दर्जन से अधिक बुजुर्ग युवक मेले में हलवा-पराठा बेच रहे हैं. बहराइच से आये वारिस अली जिनकी उम्र 75 साल है वे कहते हैं कि दो पुश्त से वे यहां आ रहे हैं. उनकी उम्र ही निकल गयी इसके पहले इनके पिता और दादा भी सोनपुर आते थे. इनके अलावा बहराइच के तीन और परिवार यहां इस कारोबार के लिए पहुंचते हैं.

झारखंडी अचार ला देगा मुंह में पानी 
सोनपुर मेले में झारखंड के विभिन्न शहरों से आये लोग आपके मुंह में पानी ला देंगे. इसका कारण यह है कि यहां पर 20 तरह के अचार मिल जायेंगे. आपको आंवले का पंसद है या ओल का? बांस का या फिर आम का? सभी मिला कर चाहिए तो वह भी हाजिर है. कीमत है 120 रुपये किलो से लेकर 150 रुपये तक. इस कीमत में आपके लिए गोड्डा, साहेबगंज, चतरा और दुमका से पहुंचे अचार के स्पेशल विशेषज्ञ मुंह खट्टा कराएंगे. दुमका जिले के बासुकीनाथ से आये रामानंद मंडल कहते हैं कि आप जो भी अचार चाहेंगे मिल जायेगा. हमारे पास कम से कम अचार और मुरब्बे के एक दर्जन से ज्यादा वेराइटी रहती है. गोड्डा के राकेश कहते हैं कि पहले तो वह इलाका भी बिहार ही ना था. यहां आकर कभी अलग नहीं लगता है. आपसी सद्भाव व भाईचारे में इस मेले जैसी कहीं कोई संस्कृति नहीं. लगता ही नहीं कि हम अपने घर से बाहर हैं.

Saturday, November 17, 2018

टेस्ट ऑफ बिहार: आद्रा नक्षत्र में हर दिल अजीज दालपूरी, आम और खीर

रविशंकर उपाध्याय4पटना. 
जेठ महीने में जब सूरज आंखे तरेर रहे हैं, लोग बाग परेशान हैं तो वैसे में आद्रा नक्षत्र का प्रवेश कई उम्मीदें जगाता है. आद्र से बना आद्रा नक्षत्र बहुत कुछ अपने साथ लेकर आता है. बिहार में मॉनसून के आने का समय होता है, बरखा रानी की आहट गर्मी की तपस को कम करती है और किसान फसल का पूर्वानुमान कर लेते हैं. यह मौसम बिहार के खास जायके का भी होता है. इस नक्षत्र में बिहार के घर-घर में बहुत कुछ खास बनता है. यदि आप बिहारी हैं तो आद्रा आते ही आपको जरूर याद आता है दालपूरी, खीर और आम का. हर घर में इस नक्षत्र में दाल की पूरी बनेगी ही बनेगी. दालपुरी के साथ खीर बनता है और अभी बाजार के साथ हर घर में तो रसीले आम हैं ही. बिहार का मालदह और जर्दालु आम इस टेस्ट को खांटी बिहारी बना देता है. इसके साथ आलू की रसेदार सब्जी जायके को बेहद खास बना देती है.
सैंकड़ों सालों से जारी है परंपरा, बारिश का जायके से सम्मान
बिहार में आद्रा नक्षत्र के दौरान इस खास जायके को बनाने और खाने की परंपरा सैंकड़ों सालों से अनवरत जारी है. यह हमारी उत्सव धर्मिता को भी बयान करता है. जानकार बताते हैं कि इस नक्षत्र के दौरान बारिश का आगमन हो जाता है. बिहार की संस्कृति में बारिश बेहद महत्व रखती है. बारिश के आगमन से ना केवल बिहार की उर्वर भूमि पर बेहतरीन कृषि कार्य की संभावना बलवती होती है बल्कि बारिश को लगातार बनाये रखने के लिए भी घरों में दालपूरी, खीर और आम बनाया जाता है. इंद्रदेव को भोग लगाने के बाद इसे घरों में सपरिवार खाया जाता है. उनसे कामना की जाती है कि बरसात यूं ही हमारे यहां होती रहे ताकि बेहतर कृषि की पूंजी से समाज रोशन होता रहे. 

सिंगापुर नहीं नवगछिया ब्रांड है सिंगापुरी केला

रविशंकर उपाध्याय®पटना.
अभी पटना हो या छपरा, बिहारशरीफ हो या मनेर शरीफ. बिहार में हर जगह आपको सिंगापुरी केले मिल जायेंगे. छिलका हरा लेकिन केला पका हुआ. इतना बड़ा कि चार केले खा लें तो फिर कुछ और खाने की इच्छा नहीं हो. पोषण भी और स्वास्थ्य भी. लेकिन क्या आपको पता है कि सिंगापुरी नामक यह केला कोई सिंगापुर से नहीं आया है. बल्कि यह ठेठ बिहारी ब्रांड केला है. पटना उद्यान विभाग के सहायक निदेशक अजीत कुमार यादव कहते हैं कि सिंगापुर नाम कैसे आया इस पर मुकम्मल शोध की आवश्यकता है. दरअसल यह वेराइटी हरी छाल कही जाती है जिसमें रोबेस्ट्रा, जी नाइन, कैवेंडिस के साथ ही सिंगापुरी आदि किस्म आती है. संभवत: लोगों ने इसके बड़े साइज को लेकर इसका नाम सिंगापुरी केला रख दिया गया.

भागलपुर के नवगछिया सब डिविजन में तुलसीपुर गांव में शुरू हुआ 
भागलपुर के नवगछिया सब डिविजन के तुलसीपुर गांव में सिंगापुरी केला की खेती पचास साल पूर्व शुरू हुई थी जो धीरे धीरे ब्रांड बन गया. यह केला बराड़ी के बाद हल्का, पूर्णिया, मधुबनी, सहरसा से खगड़िया और उसके बाद पूरे बिहार में फैल गया. उद्यान निदेशक कहते हैं कि शुरूआत में सिंगापुरी केला इतना लंबा और मोटा नहीं होता था. लेकिन बाद में बड़ा साइज आने लगा. जो रोबस्ट्रा है. अभी पश्चिमी चंपारण, पूर्वी चंपारण, समस्तीपुर, खगड़िया, कटिहार, भागलपुर, पूर्णिया, वैशाली, नालंदा, सहरसा, बेगूसराय और पटना तक में इस प्रजाति के केले की खेती होती है. हाजीपुर, मुजफ्फरपुर, वैशाली के बाद नवगछिया तक इस केले की खेती में काफी आगे बढ़ चुका है. यहां पर रोबेस्ट्रा और जी 9 नस्ल के बीज भी मौजूद हैं. यह केला कच्चा सब्जी बनाने के अलावा आटा बनाने तथा चिप्स बनाने के काम में आते हैं. सिंगापुरी के अलावे हमारे यहां हाजीपुर का चीनिया केला, कोसी इलाके का मानकी, किशनगंज जिले का मालभोग केला लोगों के स्वाद में बस चुका है.

तीखा नहीं बड़ा मीठा है बेतिया का मिर्चा चूड़ा



रविशंकर उपाध्याय®पटना.
बेतिया पश्चिमी चंपारण जिले का मुख्यालय है जो भारत-नेपाल सीमा पर स्थित सबसे बड़े शहरों में से एक है. 'बेतिया' शब्द 'बेंत' से उत्पन्न हुआ है जो कभी यहां बड़े पैमाने पर उत्पन्न होता था लेकिन अब यह नगर बेंत से नहीं जाना जाता है. बेतिया नाम आते ही यदि कुछ सबसे पहले याद आता है तो वह है बेतिया राज, महाराजा का भव्य महल और बेहद प्रसिद्ध मिर्चा चूड़ा. भले ही इसके नाम मिर्चा हो लेकिन इसका स्वाद बेहद मीठा है. अंग्रेजी काल में बेतिया राज दूसरी सबसे बड़ी जमींदारी थी जिसका क्षेत्रफल 1800 वर्ग मील थी. कहते हैं इससे उस समय 20 लाख रुपये लगान मिलता था. हरहा नदी की प्राचीन तलहटी में स्थित इस शहर में महात्मा गांधी ने बेतिया के हजारी मल धर्मशाला में रहकर सत्याग्रह आंदोलन की शुरुआत की थी.
चूड़ा के दो ही बिहारी ब्रांड मिर्चा चूड़ा और कतरनी
यह तो हम सब जानते हैं कि बिहार में धान की खेती बड़े पैमाने पर होती है और भागलपुरी कतरनी के साथ ही बेतिया का मिर्चा चूड़ा बेहद प्रसिद्ध है. बेतिया के नौतन, मझौलिया, चनपटिया, नरकटियागंज, सिकटा, मैनाटांड़, रामनगर व बगहा समेत दोन क्षेत्र में मिर्चा धान की बंपर पैदावार होती है और इसके बाद यहां का मिर्चा चूड़ा पूरे प्रदेश में अपनी खुशबू बिखेरता है. मिर्चा धान बेतिया क्षेत्र का सबसे पसंदीदा धान है. भले ही इसके उत्पादन को लेकर नये नये प्रयोग चल रहे हैं पर आज भी देश-विदेश में रहने वाले लोग जब वापस आते हैं तो बेतिया से मिर्चा चावल और चूड़ा जरूर ले जाते हैं. दूरदराज में रहने वाले परिजन भी त्योहार व महत्वपूर्ण अवसरों पर अपने संगे-संबंधियों से उपहार के रूप में मिर्चा चूड़ा व चावल की मांग करते हैं. इससे यह सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि मिर्चा की सुगंध व स्वाद के प्रति लोगों में कितना आत्मीय लगाव है.

सुगंध और स्वाद ही है रोहतास के सोनाचूर चावल की पहचान

सोनाचूर चावल 
रविशंकर उपाध्याय®पटना.
बिहार के रोहतास जिले का नाम भले ही सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र के पुत्र रोहितेश्वर के नाम पर रखा गया हो लेकिन 1857 तक जिला का एक बहुत ही अनजान इतिहास था. बाबू वीर कुंवर सिंह ने 1857 के विद्रोहियों के साथ ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ विद्रोह किया. कुंवर सिंह के अधिकांश विवरण वर्तमान भोजपुर जिले से संबंधित है हालांकि इस विद्रोह का प्रभाव पड़ा और यहां वहां विद्रोह जैसी घटनाएं उत्पन्न हुई. जिले के पहाड़ी इलाकों ने विद्रोह के भगोड़ों को प्राकृतिक संरक्षण प्रदान किया. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भोजपुर जिले का भारत की स्वतंत्रता आंदोलन में पर्याप्त योगदान था. आजादी के बाद रोहतास शाहबाद जिले का हिस्सा बना रहा लेकिन 1972 में रोहतास एक अलग जिला बना. इन सबके बीच यहां का एक स्वाद लगातार बना रहा जो धरती से जुड़ा है. धान का कटोरा कहे जाने वाले इस जिले रोहतास के सोनापुर चावल को जिसने भी खाया है वह खासियत जानता है. इसे ना केवल स्वाद और सुगंध का राजा कहा जाता है बल्कि अपनी खास कीमत के कारण इस किस्म को किसानों का एटीएम भी कहा जाता है.
सोनाचूर चावल 
रोपनी के समय से ही आने लगती है खुशबू
बिक्रमगंज थाने में नोनहर आदर्श गांव के रहने वाले विश्वंभर भट्ट बताते हैं कि सोनाचुर सुगंधित चावल है. महीन चावल है. आपको बताएं कि जब इसकी रोपनी होती थी तो बिचड़ा के समय से ही सुगंध आना शुरू हो जाता था. खेत के इर्द गिर्द दस फीट का क्षेत्र सुगंधित होना शुरू हो जाता था. रोहतास के बिक्रमगंज क्षेत्र के साथ ही नटवार, दिनारा, नटनोखा, काराकाट आदि क्षेत्र में अच्छी खेती होती है. वे कहते हैं कि अन्य धानों के मुकाबले कम उपज होती है, एक बीघा में यदि कतरनी 16 बोरा होगा तो सोनाचूर 12 बोरा होगा. लेकिन महंगा होने के कारण यह मेंटेंन कर जाता है. पूरे बिहार में सोनाचूर चावल की मांग तो होती ही है, इसका निर्यात भी किया जाता है.

Monday, September 24, 2018

खीर की बिहारी पहचान है रसिया

 
टेस्ट ऑफ बिहार
बिहार में खाने के बाद मीठे में सबसे ज्यादा पसंद वाला व्यंजन खीर है. खीर ऐसा मिष्ठान्न है जिसे चावल को दूध में पकाकर बनाया जाता है. खीर दूध, चीनी और चावल से बनती है. इसमें सूखे मेवे डालते हैं. देश के अलग अलग राज्यों में खीर को अलग-अलग नाम से जाना जाता है, लेकिन बनाने की विधि कमोबेश एक होती है. बिहार में खीर के साथ जो प्रयोग हुआ है वह चीनी के जगह पर गुड़ या छोवा डालकर बनाया जाने वाला रसिया. रसिया दूध, चावल, घी, गुड़, इलायची, मेवे और केसर डालकर पकाया जाता है. इतिहासकारों के अनुसार खीर का पहला उल्लेख 400 ईसा पूर्व के जैन और बौद्ध ग्रंथों में मिलता है. आयुर्वेद में तो बाकायदा इसे स्वास्थ्य के लिए लाभकारी बताया गया है. खीर शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के क्षीर से हुई जिसका अर्थ ही दूध होता है. बिहार की यह रसिया पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रसखीर के नाम से जाना जाता हैं. बरसात या सर्दियों में गुड़ की खीर को खाने से इसका स्वाद और भी बढ़ जाता हैं. इस खीर में चीनी की जगह गुड़ डाल देने से खीर का स्वाद बदल जाता है. रसिया या गुड़ की खीर का स्वाद इतना जायकेदार होता हैं, कि घर में हर किसी को इससे प्यार हो जाए. गुड़ की खीर की रैसिपी में दूध को उबाल कर और चावल डाल कर बनायी जाती हैं.


ऐसे बनायी जाती है रसिया 
आधा कप चावल को अच्छे से साफ करके धोकर 2 घंटे के लिए पानी में भिगो कर रख दीजिए. इसके बाद चावल में से अतिरिक्त पानी निकाल कर चावल ले लीजिए. सभी काजू को 5-6 छोटे टुकड़ों में काट लीजिए. बादाम को बारीक छोटे-छोटे टुकड़ों में काट कर तैयार कर लीजिए. इलायची को छील कर इसके बीजों का पाउडर बना लीजिए. अब किसी बर्तन में दूध डाल कर गैस पर गरम करने के लिए रख दीजिए. दूध में उबाल आने पर चावलों को दूध में डाल कर मिला दीजिए. दूध को चमचे से चलायें और खीर में उबाल आने के बाद गैस को धीमी रखें, खीर को हर 1-2 मिनट में चलाते रहें क्योंकि खीर तले में बहुत जल्दी जलने लग जाती है. किसी एक बर्तन में गुड़ और अाधा कप पानी को डालकर, गैस पर गर्म करिए. जब गुड़ पूरी तरह पानी में घुल जाए, तब गैस को बंद कर दीजिए. चावल मुलायम हो जाए तब खीर में काजू, किशमिश और बादाम डाल दीजिए. चावल दूध में अच्छे से मिल जाने पर इसमें इलायची पाउडर डाल दीजिए. अब गैस को बंद कर दीजिए. आपकी खीर तैयार हैं. खीर को ठंडा होने के लिए रख दीजिए.

Tuesday, September 4, 2018

किशनगंज-कटिहार की चाय पीयेंगे तो कहेंगे वाह बिहार!

टेस्ट ऑफ बिहार4पटना.
असम और दार्जिलिंग की चाय के बारे में तो सब जानते हैं लेकिन किशनगंज और कटिहार ब्रांड बिहार चाय है. बिहार में चाय की खेती सर्वप्रथम 1982 में किशनगंज जिले में आधा हेक्टेयर भूमि में शुरू की गयी थी अभी तेज विकास और विस्तार के चलते 50 एकड़ जमीन पर चाय की खेती हो रही है. अभी किशनगंज-कटिहार में लगभग 10 चाय रिफाइनिंग मशीन कार्यरत हैं. यहां से भारत की कुल चाय का 2 फीसदी उत्पादन होता है. हालांकि एक दिलचस्प कहानी यह है कि वर्ष 1956 में राज्य पुनर्गठन आयोग द्वारा किशनगंज अनुमंडल के करणदिघी से सोनापुर (अब बंगाल) के छह प्रखंड काटकर यदि पश्चिम बंगाल को न दे दिये जाते तो किशनगंज के माध्यम से बिहार 1956-57 में चाय उत्पादक राज्य हो जाता.
कभी किशनगंज का हिस्सा रहा सोनापुर आज पश्चिम बंगाल में चाय व अनानास उत्पादन में कमाऊ पूत बना है. बिहार के चेरापूंजी के रूप में विख्यात किशनगंज-कटिहार में चाय की खेती के लिए मिट्टी व मौसम माकूल है. अधिक बारिश चाय की खेती के लिए मुफीद मानी जाती है. ठाकुरगंज, पोठिया व किशनगंज प्रखंड में लगभग 40 हजार एकड़ में चाय की खेती हो रही है. यहां की चाय दार्जलिंग जिले की चाय से बखूबी ठक्कर ले रही है. निजी टी प्रोसेसिंग प्लांट में बनी चाय बिहार के अन्य जिले सहित दूसरे प्रदेशों में भी खूब बिक रही है.
दिलचस्प है चाय की इतिहास
चाय के इतिहास के साथ बड़ी ही दिलचस्प कहानी जुड़ी हुई है. बात चार हजार साल पुरानी है. चीन का एक बादशाह हुआ करता था, जिसका नाम शिन नोंग था. एक बार वह शिकार पर गया और थककर पेड़ के नीचे आराम कर रहा था. पास ही उसके लिए पानी उबल रहा था. तभी पास ही के पड़े की कुछ पत्तियां उसमें आ गिरीं. पानी उबला, बादशाह ने पीया और उसकी सारी थकान दूर हो गई और वह अपने साथ जाते हुए उस पेड़ की कुछ पत्तियां ले गया. इस तरह एक ऐसे पेय पदार्थ ने हमारे जीवन में कदम रखा, जिसने हमें कुछ पल सुकून से बिताने और बतियाने के अलावा सेहतमंद होने की दिशा में बढ़ाने के भी दिए. खास यह कि आखिर वह क्या तत्व था जिसने बादशाह नोंग की सुस्ती दूर भगा दी. चाय में थियानिन होता है. जिससे दिमाग में अलर्टनेस आती है और सुकून मिलता है. इससे ताजगी का एहसास होता है.

बिहार की मिठास को पहचान देती है परवल की मिठाई

-खांटी बिहारी टेस्ट की ब्रांड एंबेसडर है परवल की मिठाई, औषधीय गुणों से भी है भरपूर  
पटना.
बिहार केवल परवल के उत्पादन में ही नंबर वन राज्य नहीं है बल्कि परवल के सबसे ज्यादा व्यंजन बनाने में भी बिहार का कोई सानी नहीं है. परवल अच्छी तरह से साधारणतया गर्म और आर्द्र जलवायु के अन्दर पनपती है, इस कारण बिहार की धरती परवल की खेती के बिल्कुल मुफीद है. परवल की लता जमीन पर पसरती है और इसकी खेती नदियों के किनारे खूब की जाती है. इस कारण बिहार में परवल की भुजिया, सब्जी से लेकर मिठाई तक खूब बनायी जाती है. कोई भी पर्व हो, त्‍योहार हो या उत्सव, यह मिठाई हर वक्‍त मौजूद रहेगी. इसका मीठा और क्रंची स्‍वाद सभी को खूब भाता है. इसमें विटामिन-ए, विटामिन-बी 1, विटामिन बी-2 और विटामिन-सी के अलावा कैल्शियम भी भरपूर मात्रा में पाया जाता है, जो कैलोरी की मात्रा कम कर कोलेस्ट्रॉल के स्तर को नियंत्रित करता है. डॉक्टरों के अनुसार परवल में मैग्नीशियम, पोटैशियम, फास्फोरस भी भरपूर मात्रा में होता है. आयुर्वेद के अनुसार परवल में त्वचा के रोग, बुखार और कब्ज की समस्याओं को खत्म करने वाले औषधीय गुण होते हैं. परवल में जो बीजों में कब्ज को दूर करने के गुण होते हैं इसके अलावा ये बीज रक्त में शर्करा और फैट्स को नियंत्रित करने का कार्य भी करते हैं. पेशाब संबंधी रोगों और मधुमेह की समस्या के लिए भी परवल बेहद लाभदायक है. परवल में भरपूर मात्रा में फाइबर्स होते हैं, जो क्रि‍या को बेहतर कर, पाचन तंत्र को मजबूत बनाता है. आयुर्वेद के अनुसार गैस की समस्या होने पर परवल को इलाज के तौर पर अपनाया जाता है. 
ऐसे बनायी जाती है परवल की मिठाई 
इस मिठाई को केवल एक तार की चाशनी से बनायी जाती है, जिससे ठंडी होने पर मिठाई में चाशनी जमे नहीं. परवल (छिले और बीच से चीरा लगाये हुए), मावा, शक्‍कर, हरी इलायची, बादाम, पिस्‍ता, मिल्‍क पावडर, सोडा बाइ कार्बोनेट चुटकी भर, केसर जमा कर लें और सबसे पहले स्‍टफिंग बनाएंगे, जिसके लिये खोए को एक पैन में रोस्‍ट करने के लिये रखेंगे. फिर उसमें आधा कप शक्‍कर मिलायें और आंच चालू रखेंगे. एक दूसरे पैन में बची हुई शक्‍कर और एक कप मिक्‍स कर के पतली चाशनी तैयार करेंगे. खोए में हरी इलायची मिला कर मिक्‍स करेंगे. अब खोए के नीचे आंच बंद कर के उसे उतार लें और उसमें बारीक कटे बादाम और पिस्‍ते मिलाएं. उसके बाद इसमें मिल्‍क पावडर भी मिलाएं. फिर इस मिश्रण को एक प्‍लेट पर निकालें और ठंडा होने के लिये रख दें. अब हम परवलों को उबालने की तैयारी करेंगे. इसके लिये एक गहरे पैन या भगौने में पानी भर लेंगे और उसमें सोडा बाइर्कोनेट मिक्‍स करेंगे. जब पानी उबलने लगेगा तब उसमें परवल डाल कर 2-3 मिनट तक पकाएंगे और गैस बंद कर देंगे. फिर परवलों को निकाल कर उसमें से पानी निथार लें. फिर इन परवलों को एक तार वाली चाशनी में लगभग 1 घंटे तक ढंक कर रखें, जिससे वह पूरी तरह से मीठे हो जाएं. अब परवल का रंग बदल जायेगा. उसके बाद परवल निकालें और उसमें से चाशनी को निथार लें. फिर उसमें खोए का मिश्रण भरें और ऊपर से केसर के धागे लगा कर सजाएं. इस मिठाई को फ्रिज में रख कर एक हफ्ते तक बड़े ही आराम से खाया जा सकता है. 

बेहतरीन स्वाद की धनी है बेलसंड की छेना जलेबी

 
टेस्ट ऑफ बिहार®पटना.
आपने शक्कर की जलेबी खाई होगी, कभी गुड़ के शीरे में बनी हुई जलेबी भी चखी होगी लेकिन क्या कभी छेना वाली जलेबी खायी है? स्वाद में लजीज और सेहत के लिए गुणकारी यह बेमिसाल स्वाद आपको बिहार के सीतामढ़ी जिले के बेलसंड इलाके में विशेष तौर पर मिलेगी. इस इलाके में छेना जलेबी के स्पेशलिस्ट कारीगर भी मिलते हैं और उसके कद्रदान भी. सीतामढ़ी का बेलसंड वैसे तो एक ऐसा कस्बा है जो समुद्र तल से 65 मीटर ऊपर होने के बावजूद बरसात आते ही बाढ़ से प्रभावित हो जाता है. 53 गांव और 10 पंचायत वाले इस प्रखंड में उड़ीसा के मूल का एक टेस्ट काफी प्रसिद्ध है. यह टेस्ट है छेना जलेबी की. कारीगर शंकर कहते हैं कि शुद्ध देसी तरीके से चाशनी में डुबोयी जलेबी का स्वाद निराला होता है. यहां छेना जलेबी को लोग शुद्धता और स्वाद के साथ ही सेहत के लिए बतौर संदेश दूर दूर भेजते हैं.
ऐसे बनती है छेना जलेबी:
चीनी और पानी मिलाकर एक तार की चाशनी बना लें, चाशनी जब तैयार होने वाली हो तब उसमें गुलाब जल और केसर मिला दें. छेना छान कर पानी निकाल दें और फिर उसमें सभी सामग्री मिलाकर जलेबी का बैटर तैयार कर ले. बटर को एक जिप लौक बैग में डालकर आगे से थोडा काट कर छेद बना ले. एक कड़ाई में घी गर्म करें और जलेबी छान कर तैयार चाशनी में एक मिनट के लिए रख कर निकाल ले, और बारीक कटे हुए पिस्ता से सजा कर सर्व करें. जलेबी की धीमी आंच पर तलें.
https://www.prabhatkhabar.com/news/food-and-drink/bihar-sitamadhi-cheena-jalebi/1190442.html

Monday, September 3, 2018

लौंग लता में है बिहारी स्वाद का पता

टेस्ट ऑफ बिहार®पटना. 
अगर आप बिहार के किसी भी शहर में घूमने निकलेंगे तो आप को यहां हलवाई की दुकान में लड्डू और पेड़े के साथ जो मिठाई सबसे ज्यादा बनती हुई दिखाई देगी वह है लौंग-लता. लौंग लता वैसे तो बंगाली मूल की मिठाई है लेकिन यह बिहार की मशहूर मिठाईयों में से एक है जिसका स्वाद आपको शहर दर शहर चखने को मिलता है. मैदे में मावा, ड्राई फ्रूट्स भरा हुए और लबालब चाशनी में डूबा हुआ लौंग लता. आखिर किसका मन नहीं ललचा जाये. इसे एक बार चखने के बाद आप इसका स्वाद भूल नहीं पाते हैं और अगर कहीं आप मीठे के शौकीन हैं तो इसे खाने के लिए बार-बार दिल मचलता रहेगा, यह भी तय है.
ऐसे बनता है लौंगलता
लौंग लता बनाना बहुत ही आसान है. आप आधा कटोरी कटा हुए मेवा के साथ मैदा, खोया, नारियल पाउडर के साथ आधा छोटा चम्मच खसखस, 5-6 साबुत लौंग, 1-2 इलायची, छोटा चम्मच गुलाब जल, 200 ग्राम घी और 100 ग्राम चीनी लें. छने हुए मैदे में एक छोटा चम्मच घी का मोयन डालकर कम पानी से मुलायम गूंद लें. एक पैन में खोया डालकर धीमी आंच में हल्का सुनहरा होने तक भून लें फिर इसमें नारियल, इलायची पाउडर, खसखस और मेवे डालकर मिला लें. अब एक दूसरे पैन में चीनी में एक कप पानी डालकर एक तार की चाशनी बनाने के लिए रखें. जब चाशनी तैयार हो जाए तो इसमें गुलाब जल मिलाकर आंच बंद कर दें. अब आटे की 5-7 छोटी लोइयां लेकर रोटी बेल लें फिर एक रोटी में एक बड़ा चम्मच भरावन डालकर चारों तरफ से बंद कर के ऊपर से लौंग लगा दें. इसी तरीके से सारे लौंग लता तैयार कर लें. एक कड़ाही में घी डालकर मीडियम आंच पर गर्म होने के लिए रखें। जब घी गर्म हो जाए तो इसमें लौंग लता डालकर सुनहरा होने तक फ्राई कर लें. इन लौंग लता को 15 से 20 मिनट के लिए चाशनी में डालकर रखें. तैयार लौंग लता को मेहमानों को परोसें.

Saturday, August 25, 2018

जिसने खायी उसने सराही, ये है फतुहा की मिरजई मिठाई

टेस्ट ऑफ बिहार®पटना. 

बिहार की राजधानी पटना जिले का फतुहा कस्बा गंगा किनारे बसा हुआ वह छोटा सा शहर है जो व्यापारिक गतिविधियों का पुराना केंद्र रहा है. मौर्य और गुप्त काल में जहां यह राजधानी पटना का जुड़वां शहर हुआ करता था वहीं 1850 ई के आसपास जब रेल लाइन यहां से गुजरते हुए मोकामा तक गयी तो यह शहर व्यापारिक गतिविधियों का बड़ा केंद्र हो गया. इस शहर में अाजादी के पहले ही मिरजई नामक मिठाई अपना नाम स्थापित कर चुका था. यहां से लोग संदेश के रूप में मिरजई ले जाया करते थे जो परंपरा अभी भी जारी है. बिहार ही नहीं जब देश के प्रमुख राजनीतिज्ञ जब भी इस फतुहा से गुजरते हैं तो उनके कार्यकर्ता भेंट के रूप में उन्हें मिरजई जरूर देते हैं. पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी जब 1990 में फतुहा में अपने चुनावी अभियान के तहत आये थे, तब कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने उन्हें मिरजई खिलायी थी. कहते हैं मिरजई उन्हें इतनी पसंद आई तो उन्होंने कार्यकर्ताओं से इसे पुनः मंगवाया था. यहां के कांग्रेस नेता बताते हैं कि राजीव गांधी ने दिल्ली से संदेशा भेजा तो उन्हें फतुहा से मिरजई भेजी गयी थी. बिहार के लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, राम विलास पासवान सरीखे नेता को भी मिरजई पसंद है और उन्हें भी कार्यकर्ता का प्यार इसी मिठाई के जरिये मिलता है.
बुलकन साव की मिरजई फेमस
यूं तो शहर में मिरजई की दुकान बहुत है, लेकिन स्व. बुलकन साव की दुकान के चर्चे दूर-दूर तक हैं. पसंद करने वाले ऑर्डर देकर यहीं से मिरजई बनवाते हैं. स्व. बुलकन साव के बेटे मोहन साव फिलहाल इस दुकान को चला रहे हैं. मोहन साव बताते हैं कि आम बिक्री और ऑर्डर की क्वालिटी में थोड़ा अंतर होता है. अब शुद्ध घी की मिरजई आर्डर मिलने पर ही बनाते हैं क्योंकि वह 250 से 300 रुपए प्रति किलो बिकती है. रिफाइंड आदि में बनायी गयी मिरजई 80 से 90 रुपये प्रति किलो बेचते हैं. कारीगर संजय बताते हैं कि मैदा और घी को मिलाने के बाद इसे आकार देकर छानते हैं और चीनी की चाशनी में हल्का तार देकर बनाते हैं. शुद्ध घी की मिठाई का रेट सिर्फ ऑर्डर देने वाले ही देते हैं. बड़े लोगों के शौक ऑर्डर से पूरे होते हैं, जबकि आम बिक्री में रिफाइंड या डालडा की मिरजई चलती है. लोग इसके स्वाद के दीवाने आज भी हैं.

Saturday, August 18, 2018

स्वाद की नमकीन 'गठरी', ये है आरा की 'मठरी'

टेस्ट ऑफ बिहार@पटना. 
राजधानी पटना से महज 55 किलोमीटर की दूरी पर स्थित आरा का इतिहास बेहद समृद्ध रहा है. डिहरी से निकलने वाली सोन की प्रमुख 'आरा नहर' भी यहीं से होकर जाती है, जिसके कारण भी इस शहर का नाम आरा पड़ा. आरा इतना प्रमुख शहर है कि अंग्रेजों को 1865 में इसे नगरपालिका का दर्जा देना पड़ा था. गंगा और सोन की उपजाऊ घाटी में स्थित होने के कारण यह अनाज का प्रमुख व्यापारिक क्षेत्र तथा वितरण केंद्र है. रेल मार्ग और पक्की सड़क द्वारा यह पटना, वाराणसी, सासाराम आदि से सीधा जुड़ा हुआ है. बाबू कुंवर सिंह की यह धरती ना केवल वीरता बल्कि अपने स्वाद की वजह से भी जानी जाती है. एक ऐसा स्वाद जो पूरे बिहार में केवल यहीं बनती है. मैदे, बेसन, आटे से बनने वाली यह नमकीन कोई और नहीं बल्कि मठरी है. इसका स्वाद ना केवल सुबह की चाय पर ली जाती है बल्कि यात्रा पर भी इसका स्वाद एक विशेष अनुभव देता है. बेसन की मठरी आरा का ब्रांड विशेष पकवान है. मठरी को आप लंबे समय तक स्टोर कर के रख सकते हैं. मठरी बनाने की विशेषज्ञ गीता जैन बताती हैं कि उन्हें तरह-तरह का पकवान बनाना बेहद पसंद है. बेसन की मठरी से खास लगाव है क्योंकि इसको आप स्नैक्स के तौर पर खा सकते हैं.
ऐसे बनाएं मठरी:
आप मैदा 500 ग्राम, बेसन 250 ग्राम, जीरा एक चाय चम्मच, लाल मिर्च पाउडर आधा चाय चम्मच, हींग-दो चुटकी पीसा हुआ लें और साथ में नमक स्वादानुसार रखें. रिफाइंड तेल भी अलग से रख लें. मैदा में रिफाइंड तेल और नमक डाल कर एक साथ मिक्स कर लें. हल्के गर्म पानी से मैदा को कड़ा गूंथ लें. हींग को थोड़ा पानी में घोल कर रख लें. भरावन के लिए बेसन में रिफाइंड तेल, नमक, जीरा, लाल मिर्च पाउडर और हींग के साथ मिलाकर दस मिनट के लिए रख दें. फिर से बेसन में पानी की कुछ छीटें देकर बेसन को भुरभुरा गूंथ लें. अब गूंथे हुए मैदे की लोई में बेसन को भरें. अब लोई को हल्का मोचा बेल लें. बेली हुई मठरी में कांटे वाले चम्मच से छेद कर लें. अब एक कढ़ाई में रिफाइंड तेल को मध्यम आंच पर गर्म करें. फिर मठरी को डाल कर दोनों तरफ गुलाबी होने तक तल कर निकाल लें. जब मठरी ठंडा हो जाये तो आप इसे एयर टाइट डब्बे में रखे. इसे आप कभी भी खा सकते हैं.

Saturday, August 11, 2018

कटहल का कोए में बसा है ठेठ बिहारी स्वाद

टेस्ट ऑफ बिहार4पटना.
कटहल भले हमारे पड़ोसी देश बांग्लादेश का राष्ट्रीय फल है लेकिन कटहल का फल जिसे कोवा भी कहते हैं उसमें ठेठ बिहारीपन बसा हुआ है. भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की पटना इकाई ने जो दो उन्नत प्रजातियां विकसित की है उसमें सब्जी के लिए स्वर्ण पूर्ति अौर पके फल (कोवा) के लिए स्वर्ण मनोहर प्रजाति के रूप में पूरे देश में पायी जाती है. देश में जहां केरल ने कटहल की सबसे प्रजातियां चिह्नित की है लेकिन उनका फोकस कटहल से बनने वाले आटे और अनाज पर ज्यादा केंद्रित है वहीं फल पर बिहार का एकाधिकार है जो सभी जगहों पर दिखायी देती है. कटहल का हमारे समाज से भी बेहद करीब का जुड़ाव है. एक कहावत भोजपुरी में बहुत इस्तेमाल किया जाता है खासकर जब कोई बहुत भाव खा रहा होता है. ..अदरी बहुरिया कटहर न खायकहावत है कि ...अदरी बहुरिया कटहर न खाय, मोचा ले पिछवाड़े जाये. कहावत के पीछे की कहानी  ये है कि घर में नयी बहू आई है और सास उसको बहुत मानती है तो कहती है कि बहू कटहल खा लो, लेकिन बहू को तो कटहल से ज्यादा भाव खाने का मन है तो वो नहीं खाती है. लेकिन उसका मन तो कटहल के लिए ललचा रहा था. तो जब सब लोग कटहल का कोवा खा चुके होते हैं तो जो बचे खुचे हिस्से होते हैं जिन्हें मोचा कहा जाता है और जिनमें बहुत ही फीका सा स्वाद होता है और जिसे अक्सर फेंक दिया जाता है, बहू कटहल का वही बचा खुचा टुकड़ा घर के पिछवाड़े में जा के खाती है.
बहुपयोगी है कटहल का कोवा
कटहल मधुमेह पर नियंत्रण में सहायक है. वहीं सिडनी यूनिवर्सिटी की एक रिपोर्ट के मुताबिक कटहल में फाइबर अधिक पर प्रोटीन, कैलोरी व कार्बोहाइड्रेट कम होने से यह वजन घटाने में भी मददगार है. यह फल कच्चा व पका दोनों रूपों में स्वादिष्ट व लोकप्रिय है. अब कटहल की प्रोसेसिंग कर इससे जैम, अचार, चटनी, शरबत, हलवा व जूस सहित चिप्स व नट केक भी बनाया जाता है वहीं बिरयानी, डोसा, पूड़ी, समोसा, काठी रोल, उपमा, उत्तपम व इडली  बनाने में भी कटहल का प्रयोग हो रहा है. 

Monday, July 23, 2018

सीतामढ़ी के खीरमोहन में बिहार के प्यार की मिठास

टेस्ट ऑफ बिहार: 4पटना.
खीर मोहन शब्द सुनते ही मुंह में पानी जाता है. ऐसा स्वाद जो पूरे प्रदेश में और कहीं नहीं बल्कि सीतामढ़ी में बने खीरमोहन में ही है. प्रदेश भर में यहां की चुनिंदा दुकानों में बने इस मिठाई की जबरदस्त मांग है. त्योहार या विशेष अवसरों पर इसकी काफी खपत होती है और इन दिनों इसे पाने के लिए एडवांस बुकिंग करानी पड़ती है. यहां के खीर मोहन का स्वाद इतना लाजवाब है कि राजनेताओं से लेकर अफसरों की पसंद बने हुए हैं. जब भी कोई बाहर प्रियजन से मिलने जाता है तो खीरमोहन ले जाना नहीं भूलता. चाहे आम हो या खास, गरीब हो या अमीर खीर मोहन सबकी नंबर वन पसंदीदा मिठाई है. राजनीति से जुड़े लोग बताते हैं कि वे जब कभी किसी काम के लिए मंत्री या अधिकारियों के पास जाते हैं तो खीर मोहन ले जाना नहीं भूलते और जो काम बड़ी बड़ी सिफारिशों से नहीं होता उसे एक अदद खीर मोहन आसानी से करवा देता है. सीतामढ़ी में मोटे अनुमान के मुताबिक सभी दुकानों पर 35 से 40 किलो खीरमोहन की बिक्री रोजाना होती है, लेकिन कुछ खास दुकानों पर यह आंकड़ा सौ किलो तक भी पहुंच जाता है. इसके अलावा पटना, मुजफ्फरपुर, भागलपुर, गया, रांची आदि इलाकों में यहां तैयार खीरमोहन बिक्री के लिए भेजे जा रहे हैं. कुल मिला कर खीर मोहन की रोज की खपत 150 से 200 क्विंटल तक पहुंच जाती है.

ऐसे बनता है खीरमोहन
खीर मोहनके लिए पहले दूध को टाटरी से फाड़कर इसका छैना बनाया जाता है. इस छैने में थोड़ी सूजी और शक्कर मिलाकर इसे झज्जर से छानते हैं. फिर इस मिश्रण की गोलियां बनाकर इसे उबलती चाशनी में पकाते हैं. लाल भूरा रंग होने तक इसे पकाया जाता है और अगले दिन तक के लिए चाशनी में डाल दिया जाता है. अब खीरमोहन खाने के लिए तैयार है. अच्छा खीर मोहन वह माना जाता है जो मुंह में जाते ही घुल जाए और इसमें भीतर थोड़ी चाशनी भी हो.

Saturday, June 30, 2018

आपने खाये हैं मगध के मूंग के लड्डू?

टेस्ट ऑफ बिहार4पटना.
1775 के आसपास नजीर अकबराबादी अपनी कविता हमें अदाएं दिवाली की ज़ोर भाती हैं, में लिखते हैं कि मगध के मूंग के लड्डू से बन रहा संजोग, दुकां-दुकां पे तमाशे यह देखते हैं लोग. खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं, बताशे हंसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं. जो बालूशाही भी तकिया लगाये बैठे हैं, तो लौंज खजले यही मसनद लगाते बैठे हैं. उठाते थाल में गर्दन हैं बैठे मोहन भोग. यह लेने वाले को देते हैं दम में सौ-सौ भोग. यह मगध के मिष्ठान्न की उस परंपरा का एक ऐतिहासिक आख्यान है जो यह बताता है कि मगध साम्राज्य में मिठाईयों का कितना महत्व रहा होगा. आज भले दुकानों से मूंग के लड्डू गायब हो गये हैं लेकिन मगध के घरों में इसे बनाने का क्रम अभी भी जारी है. खेतों से खड़ी मूंग घर पर आते ही इसकी तैयारी शुरू हो जाती है. इसके लड्डू दो प्रकार से बनाये जाते हैं. पहला तरीका यह होता है कि खड़े मूंग को भिगों कर मिक्सी में पीस लिया जाता है और उसके बाद मूंग को देसी घी में भूना जाता है. उसके बाद शक्कर चूर्ण मिलाकर लड्डू का शक्ल दे दिया जाता है. 
मूंग दाल का लड्डू ऐसे बनाया जाता है
मूंग की दाल को धो कर 3-4 घंटे के लिये पानी में भिगो दीजिये. दाल को धो कर पानी से निकाल लें और मिक्सी में पीस लीजिए. बादाम को भी मिक्सी में पीस कर पाउडर बना लीजिए, काजू को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लीजिए. पिस्ता को लंबाई में पतला-पतला काट लीजिए और इलायची को छील कर पाउडर बनाइए. कढ़ाई में घी डाल कर हल्का गरम कर लीजिये और इसमें दाल डाल दीजिए. दाल के अच्छे से भून जाने पर दाल का कलर चेंज होने लगता है, दाल से घी अलग होता दिखता है और अच्छी महक भी आने लगती है. दाल भून कर तैयार है. दाल को प्याले में निकाल कर थोड़ा ठंडा होने दीजिए. दाल के हल्का ठंडा होने पर इसमें बादाम का पाउडर, कटे हुए काजू, इलायची पाउडर और बूरा डाल कर सभी चीजों को अच्छे से मिलने तक मिक्स करने के बाद हाथों में थोड़ा-थोड़ा मिश्रण लेकर इस मिश्रण को दबा-दबाकर इसके लड्डू बनाये जाते हैं.

Friday, June 22, 2018

बेहतरीन गंध और हो गूदेदार तो समझो ये है दीघा का दूधिया आम

-बिहार में आम का राजा है दूधिया मालदह
टेस्ट ऑफ बिहार4पटना.
अभी मौसम फलों का राजा आम का है. हम टेस्ट ऑफ बिहार कॉलम में पहले भागलपुर के जर्दालू आम की चर्चा कर चुके हैं लेकिन इसी आम के मौसम में दीघा, पटना के दूधिया आम के जिक्र के बगैर आम पर चर्चा पूरी नहीं हो सकती है. मालदह की एक ख़ास वेराइटी पटना के दीघा इलाके में उपजती है और इलाके के नाम पर ही इसका नाम भी दीघा मालदह है. यह वेराइटी अपने मिठास, खास रंग, गंध, ज्यादा गूदा और पतली गुठली और पतले छिलके के कारण मशहूर है. पटना के दीघा घाट के मालदा आम की खुशबू और मिठास के दीवानें देश-विदेश तक फैले हैं. मालदा आम की मिठास और खुशबू की वजह से हर साल अमेरिका, यूरोप, दुबई, स्वीडन, नाइज़ीरिया, इंग्लैंड आदि देशों में रहने वाले लोग इसे वहां मंगवाते हैं. महाराष्ट्र, यूपी, गुजरात, पश्चिम बंगाल, दिल्ली, राजस्थान आदि राज्यों में भी मालदह आम के कद्रदानों की भरमार है. भले ही अलफैंसों को आम का राजा कहा जाता हो लेकिन बिहार खासकर मगध में तो दीघा के दुधिया मालदा को ही आम का राजा माना जाता है. यह आम, आम लोगों के साथ-साथ मंत्रियों, नेताओं, उद्योगपतियों, सेलिब्रेटी के यहां भी भेजा जाता है.

पहले राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद इस आम के बड़े शौकीनों में से थे.
देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को दीघा मालदह बहुत पसंद था. जब राजेंद्र बाबू दिल्ली में थे तो वे अक्सर दीघा मालदह को याद किया करते थे. जिस साल 1962 में वे पटना लौटे उस साल दीघा मालदा की बहुत अच्छी फसल हुई थी. सदाकत आश्रम के आगे काफी दूर तक सड़क के दोनों ओर आम के बगीचे थे. उस वक्त भी लोग बागानों से कच्चे आम तोड़वा कर लाते थे और उसे घर में कागज पर या चावल की बोरियों में रखकर पकाते थे.  साठ के दशक में तब आम किलो के भाव नहीं गिनती से बेचे जाते थे. तब एक रुपए में बारह से चौदह आम तक मिल जाते थे. वहीं इस ख़ास आम के स्वाद को याद करते हुए वे कहते हैं कि आम मुंह में डालते ही कुछ बहुत अच्छी चीज़ का अहसास होता था. दीघा ठीक गंगा नदी के किनारे पर बसा इलाका है. दीघा मालदह के जो चंद बागान अब भी बचे हैं उनमें बिहार विद्यापीठ का बागान भी है. यह वही विद्यापीठ है जहां राजेंद्र प्रसाद ने अपने जीवन के अंतिम कुछ महीने गुजारे थे.

Saturday, June 9, 2018

गुलाब जामुन का बिहारी संस्करण है पनतुआ

-मगध ही नहीं मिथिला में है बेहद प्रसिद्ध
टेस्ट ऑफ बिहार, पटना

जब भी हम भारतीय स्वाद की बात करते हैं तो हम सबको यह पता है कि हमारा स्वाद ग्लोबल है. विदेशियों के भारत आने और रहने के साथ ही यहां का जायका और व्यापक होता रहा. विदेशियों के साथ आने वाले कुछ मिठाइयों के स्वाद यहां खाने वालों को इतने पसंद आए कि हर शहर के लोग उन्हें पसंद करने लगे. गुलाब जामुन भी ऐसी मिठाइयों में शामिल है. गुलाब जामुन का नाम लो और मुंह में पानी ना आए ऐसे हो ही नहीं सकता. हमारे देश में मिठाइयों को ले कर नये नये प्रयोग होते रहे हैं. हम बिहार वालों ने भी अपने स्वाद को लेकर खूब प्रयोग किये. गुलाब जामुन का बिहारी संस्करण पनतुआ हम सबको याद होगा. मगध हो या मिथिला. यह स्वाद हमें अनेकों शहरों में मिलता रहा है.
ईरान से हिंदुस्तान आया गुलाब जामुन और बंगाल से बिहार पहुंचा पनतुआ
स्वाद के जानकार कहते हैं कि पनतुआ हमारे यहां बंगाल से पहुंचा. 1912 के पहले हमारा बिहार भी बंगाल का ही एक हिस्सा था. मिथिला से होते हुए मगध की इस यात्रा ने लंबा पड़ाव तय किया है. वैसे यह जानना दिलचस्प है कि गुलाब जामुन मिठाई भू-मध्यसागरीय देशों अौर ईरान से आयी थी जहां इसे लुक़मत अल क़ादी कहते हैं. लुक़मत अल क़ादी आटे से बनाया जाता है। आटे की गोलियों को पहले तेल में तला जाता है फिर शहद की चाशनी मे डुबाकर रखा जाता है. फिर इसके ऊपर चीनी छिड़की जाती है लेकिन इसके भारतीय संस्करण में कुछ बदलाव किए गए. पनतुआ काला जामुन का एक अलग रूप है, जो बिहार में बेहद प्रसिद्ध है. मीठा गहरा तला हुआ यह जायका हमें हमारे प्रयोगों के बारे में गर्व करने को भी कहता है. मावा, चीनी और दूध से बने खासमखास 'पनतुआ' का साइज छोटा है लेकिन टेस्ट में अपने गुलाब जामुन से बीस समझिए.

Sunday, June 3, 2018

लीची हो तो मुजफ्फरपुर की हो, वरना ना हो

टेस्ट ऑफ बिहार4पटना
लीची हो तो मुजफ्फरपुर की हो नहीं तो और जगहों की लीची में वो स्वाद कहां? वो रसीलापन कहां जिसमें स्वाद के शौकीन डूब जाते हैं. ब्रांड बिहार का प्रमुख एंबेसडर लीची पूरे देश में टेस्ट ऑफ बिहार को स्थापित करता है. सबसे बढ़िया किस्म की लीची बिहार में मुजफ्फरपुर के बागानों की सौगात है. इनका कंटीला छिलका आसानी से उतारा जा सकता है और भीतर वाली गुठली भी बहुत पतली- नाम मात्र की ही होती है. सुगंध और मिठास के तो कहने ही क्या! मुजफ्फरपुर की शाही लीची देश के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति के साथ-साथ अन्य वीआईपी लोगों को भी जिला प्रशासन के द्वारा गिफ्ट के रूप में भेजी जाती है.
लीची में कैल्शियम के साथ  प्रोटीन और फास्फोरस
लीची के पेड़ की ऊंचाई मध्यम होती है. पूर्णतः पकने के बाद लीची का रंग गुलाबी और लाल हो जाता है. लीची के अंदर दूधिया सफेद भाग विटामिन सी से युक्त होता है. लीची में प्रचुर मात्रा में कैल्शियम के साथ-साथ प्रोटीन खनिज पदार्थ फास्फोरस आदि पाए जाते हैं. जिसके वजह से इसका उपयोग स्क्वैश, कार्डियल, शिरप, आर.टी.एस., रस, लीची नट इत्यादि बनाने में किया जाता है. मुजफ्फरपुर में दो तरह की लीची पैदा होती है. जिसमें शाही लीची सबसे मशहूर है. शाही लीची की सबसे बड़ी खासियत यह है कि चाइना लीची के मुकाबले काफी बड़ी होती है और सबसे पहले पककर तैयार हो जाती है. हालांकि गर्म हवाओं और नमी नहीं होने के कारण शाही लीची का फल अकसर फट जाता है. ऐसे में वो चाइना लीची के आकार से थोड़ा छोटा होता है वहीं चायना लीची में फल फटने का खतरा नहीं रहता है. आम के महीने में चाइना लीची पूर्णतः पककर तैयार होती है. यह शाही लीची के मुकाबले अत्यधिक मीठी होती है.
नालंदा विश्वविद्यालय के कारण बिहार पहुंची लीची
मुजफ्फरपुर की लीची बहुत मशहूर है, लेकिन पहले-पहल भारत में यह चीन से आया था. मशहूर बौद्ध तीर्थयात्री ह्वेनसांग के साथ लीची बिहार आया. जो कई बरस नालंदा विश्वविद्यालय में छात्र रहे थे. माना जाता रहा है कि लीची का मौसम चेरी, शहतूत और जामुन की तरह बहुत छोटा होता है. यानी इसका आनंद आप बहुत दिनों तक नहीं ले सकते हैं. शुरू में हर फल महंगा होता है और पहले-पहल बाजार में पहुंचनेवाला फल स्वादिष्ट भी अधिक नहीं होता. अतः और भी ज्यादा सतर्क रहने की दरकार होती है. लीची के अधिकांश शौकीन टिन में बंद पहले से छिली, गुठली निकाली हुई लीची से संतुष्ट हो लेते हैं. पर ढेरों ठंडी की लिची को खुद छीलकर निबटाने का मजा ही कुछ और है. नयी पीढ़ी लीची के शरबत, आइस्क्रीम आदि से ही परिचित है. चीन में भोजनोपरांत अवश्य लीची को वनीला आइस्क्रीम के साथ परोसने का रिवाज है.

Saturday, May 19, 2018

महावीर मंदिर के नैवेद्यम में स्वाद के साथ श्रद्धा-सेवा की मिठास

टेस्ट ऑफ बिहार, पटना.
पटना के प्रसिद्ध महावीर मंदिर के प्रसाद नैवेद्यम का स्वाद शायद ही किसी ने नहीं चखा हो. इस स्वाद में श्रद्धा और सेवा की ऐसी मिठास है जिसे पूरी दुनिया जानती है. यह ना केवल प्रसाद के तौर पर अपनी श्रद्धा प्रदर्शित करने का जरिया है बल्कि समाज सेवा का भी एक बेहतर माध्यम है. क्योंकि नैवेद्यम से मिली राशि को कैंसर मरीजों पर खर्च किया जाता है. महावीर मंदिर न्यास की ओर से लड्डू से प्राप्त राशि से लगभग 500 कैंसर मरीजों की मदद की जाती है. कैंसर मरीजों को दस हजार से 15 हजार रुपये की आर्थिक सहायता दी जाती है. इस राशि से अस्पताल में भर्ती सभी मरीजों के लिए तीनों समय नि: शुल्क भोजन की व्यवस्था की जाती है. इसके अलावा मरीजों के अटेंडेंट को लिए 30 रुपये की न्यूनतम दर से भोजन उपलब्ध कराया जाता है. सौ रुपये प्रति यूनिट की दर से ब्लड कैंसर मरीजों को उपलब्ध कराया जाता है. यानी आप जानिये कि आपकी श्रद्धा से आये रुपये का कैसे सकारात्मक इस्तेमाल किया जाता है.
ऐसे बनाया जाता है नैवेद्यम लड्डू
नैवेद्यम लड्डू की शुद्धता का विशेष ख्याल रखते हुए मक्खन से घी बनाया जाता है और उस घी में लड्डू बनाया जाता है. तिरूपति के लड्डू बनाने में जिस घी का इस्तेमाल किया जाता है उसकी आपूर्ति सीधे कर्नाटक मिल्क को-आॅपरेटिव फेडरेशन से किया जाता है. अभी 250 रुपये प्रति किलोग्राम की दर से लड्डू बेचे जा रहे हैं. महावीर मंदिर के साथ ही नैवेद्यम लड्डू की 500 ग्राम, 250 और 200 ग्राम के पैकिंग में उपलब्ध है. कुछ दिनों के बाद गाय के शुद्ध घी से निर्मित लड्डू उपलब्ध कराने की भी योजना है.

Sunday, May 13, 2018

आप हो जाएंगे लट्टू, जब खाएंगे जमुई का महुअा लड्डू

जमुई का महुअा लड्डू
टेस्ट ऑफ बिहार4पटना
महुआ फूलों से बनाया जाने वाला ‘महुआ लड्डू’ बिहार के दक्षिणी हिस्से में बसे जमुई जिले का खास स्वाद है. महुआ के पेड़ों की बहुलता के कारण महुआ का लड्डू इस इलाके में बनाया जाता है. सूखा भुना हुआ महुआ, गुड़, जीरा, सूखे अदरक, लौंग, घी आदि को मिला कर इसे बनाया जाता है. इसमें कैरोटीन, एस्कॉर्बिक एसिड, थाइमिन, रिबोफ्लाविन, नियासिन, फोलिक एसिड, बायोटिन और इनॉसिटॉल खनिज पाए जाते हैं जो इसे पौष्टिक बनाता है. दरअसल महुआ के वृक्ष का आदिवासी संस्कृति में अत्यधिक महत्व है. इसे इष्टदेव के समतुल्य मानकर इसकी पूजा की जाती है. इससे आदिवासियों की दिनचर्या की बहुत सी चीजें जुड़ी हुई हैं. महुआ फूल आम तौर पर आदिवासी के साथ अन्य ग्रामीण महिलाओं द्वारा इकट्ठा किए जाते हैं और वे इन्हें स्थानीय बाजार में अपनी आजीविका की खातिर कुछ पैसे कमाने के लिए बेचती हैं. जिसका इस्तेमाल शराब तैयार करने के लिए भी किया जाता है. लेकिन इसका इस्तेमाल स्थानीय हलवाई और कारीगरों के द्वारा इस बेहतरीन स्वाद को बनाने में किया जा रहा है.
कैसे बनता है महुए का लड्डू?
महुआ लड्डू को बनाना आसान नहीं है. महिलाएं बाज़ार से महुआ ख़रीदकर अच्छी तरह धोकर सुखाती हैं. तब उसे घी में भूना और फिर पीसा जाता है. पहले पिसाई-कुटाई का काम वे लोग ढेंकी (जाता) में करती थीं, लेकिन उससे लड्डू खुरदुरा बनता था. बारीक़ पिसाई के लिए ग्राइंडर का इस्तेमाल किया जाता है. दस किलो महुए में सफेद तिल, काग़ज़ी बादाम, मूंगफली के दाने, चावल और गुड़ एक-एक किलो के हिसाब से मिलाया जाता है. लड्डू बांधने के बाद उस पर नारियल का चूरा लगाया जाता है. एक किलो लड्डू की क़ीमत दो सौ से तीन सौ रुपये है. जिसमें तीस से चालीस के क़रीब लड्डू आते हैं. ये बूंदी वाला लड्डू नहीं है, जो कुछ ही घंटों में तैयार हो जाता है. महुए का लड्डू बांधने से पहले सारी प्रक्रिया पूरी करने में कम-से-कम पांच दिन का वक़्त लगता है और मेहनत के कारण इसकी कीमत ज्यादा होती है.

Saturday, April 28, 2018

'आम' नहीं सबसे खास है भागलपुर का 'जर्दालु आम'

पटना.
बिहार के भागलपुर में होने वाला जर्दालू आम 'आम' से लेकर 'खास' तक हर किसी को लुभाता है. इसका स्वाद ही कुछ ऐसा है कि एक बार जो इसे चख ले वह इसका दीवाना हो जाता है. ऐसा माना जाता है कि भागलपुर में जर्दालु आम को सबसे पहले अली खान बहादुर ने इस क्षेत्र में लगाया था. जर्दालु आम की विशेषता है कि इसका फल हल्के पीले रंग का होता है तथा यह विशेष सुगंध के कारण विश्व भर में प्रसिद्ध है. अपने भीतर खास तरह की फ्लेवर और मिठास समेटे यह आम केंद और राज्य के बीच राजनैतिक संबंध में भी मिठास घोलने का काम कर रहा है. बिहार की नीतीश सरकार 'ब्रैंड बिहार' को प्रोमोट करने के लिए जर्दालू आम का इस्तेमाल कर रही है. इस कारण पिछले कई दशकों से यह आम खास होकर आम जनता के साथ राजनीतिज्ञों के लिए भी खास रहा है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के निर्देश पर वर्ष 2006 से भागलपुर का जर्दालु सौगात के रूप में देश के महामहिम राष्ट्रपति, उप राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, रक्षा मंत्री, कृषि मंत्री, सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, दिल्ली के मुख्यमंत्री सहित अति विशिष्ट अतिथियों को भेजा जाता रहा है. बिहार के जर्दालू आम को अंतरराष्ट्रीय स्तर की पत्रिका ज्योग्राफिकल इंडिकेशन जॉर्नल में जगह भी मिल गयी है. जर्नल में इसे राज्य के बौद्धिक संपदा अधिकार शीर्ष से जगह मिली है. भागलपुर के जर्दालु आम उत्पादक संघ के आवेदन को स्वीकृत करते हुए ज्योग्राफिकल इंडिकेशन जर्नल ने स्थान दिया है.
आम उत्पादन के लिए भागलपुर की मिट्टी है बेहतरीन
दरअसल आम उत्पादन के लिए भागलपुर एरिया की मिट्टी बेहतरीन है. इसलिए यहां पैदा होने वाला जर्दालू का स्वाद भी लजीज होता है. इस आम में एक विशेष तरह की सुगंध व स्वाद होता है. दरअसल ब्रैंड प्रमोशन की कमी के चलते यह लजीज आम अपने एरिया तक ही सिमट कर रह गया था. अपने खास गुणों और स्वाद के बाद यह आम यूपी के दशहरी की तरह पूरी दुनिया के सामने आ पाया है.

Thursday, April 26, 2018

हिन्दुस्तानी तहजीब की बिहारी पहचान है ''मगही पान''

 पटना.
लंबे अरसे से पान हिंदुस्तानी तहज़ीब का एक अहम हिस्सा रहा है. तहजीब से इतर धार्मिक रीति-रिवाजों में भी इसकी गहरी मान्यता है. इस देश के एक बड़े हिस्से में पान खाना और खिलाना समाजिक राब्ते और रिश्तों की गहराई बढ़ाने, मेहमान-नवाज़ी की रस्म का रंग चटख लाल करने का अहम ज़रिया है. इस लाली का रंग हमारे बिहार के मगही पान में दिखाई देता है. बिहार की कुछ बेहद नामचीन पहचानों में एक पहचान यहां का मशहूर मगही पान भी है.क्योंकि मगही पान सर्वोत्तम है. मगही मागधी का अपप्रंश है जो मगध में रहने वाले और यहां पाये जाने वाले के लिए प्रयोग में आता है. जो अब मगही हो गया है. मगही भाषा, मगही लोग और मगही पान.
मगध के तीन जिलों में पान की खेती होती है
मगध के मुख्यत: तीन जिलों में पान की खेती होती है. ये जिले हैं नवादा, नालंदा तथा औरंगाबाद. कोमलता एवं लाजवाब स्वाद के लिए पूरे देश में मगही पान प्रसिद्ध है. इसके पत्ते गहरे हरे रंग के होते हैं और आकार दिल की तरह होता है. स्वाद ऐसा जो मुंह में घुल जाये. इसी कारण मार्च महीने में जिन तीन बिहारी स्वाद को ग्लोबल पहचान मिली है. उसमें मगही पान भी शामिल है, जिसको खांटी बिहारी पहचान मिल गयी है़ ज्योग्राफिकल इंडिकेशन जर्नल ने बिहार के मगही पान स्वाद को बौद्धिक संपदा अधिकार के तहत जीआइ टैग दिया है़ मगही पान के लिए उत्पादक कल्याण समिति देवरी (नवादा) ने आवेदन किया था.
कई औषधीय गुणों का स्वामी है पान
भारतीय संस्कृति में पान को हर तरह से शुभ माना जाता है. धर्म, संस्कार, आध्यात्मिक एवं तांत्रिक क्रियाओं में भी पान का इस्तेमाल सदियों से किया जाता रहा है. इसके अलावा पान का रोगों को दूर भगाने में भी बेहतर तरीके से इस्तेमाल किया जाता है. खाना खाने के बाद और मुंह का जायका बनाये रखने के लिए पान बहुत ही कारगर है. कई बीमारियों के उपचार में पान का इस्तेमाल लाभप्रद माना जाता है.


Saturday, April 7, 2018

स्वाद और सुगंध की धनी भागलपुरी कतरनी

 पटना
कतरनी चावल हो कतरनी का चूड़ा. इसके स्वाद और खुशबू को हर बिहारी अच्छी तरह से समझता है. स्वाद और सुगंध के धनी इस कतरनी को अब अंतरराष्ट्रीय पहचान मिल गयी है. भागलपुर के कतरनी धान को जियोग्राफिकल इंडिकेशन मिल गया है और इसी के साथ अब भागलपुरी कतरनी की खुशबू राष्ट्रीय स्तर पर फैलेगी. कतरनी के दाने छोटे और सुगंधित होते हैं. पत्तों और डंठल से भी विशेष तरह की खुशबू आती है. यह धान 155-160 दिनों में पककर तैयार होता है. इसके बाद इसकी खुशबू पूरी दुनिया में बिखरती है. ना केवल कतरनी का निर्यात किया जाता है बल्कि कतरनी को बिहारी स्वाद का संदेशवाहक भी माना जाता है.

अंग क्षेत्र की सौगात है कतरनी धान
कतरनी धान अंग क्षेत्र का सबसे पसंदीदा धान है. भले ही इसके उत्पादन को लेकर नये नये प्रयोग चल रहे हैं पर आज भी देश-विदेश में रहने वाले लोग जब वापस आते हैं तो भागलपुर से कतरनी चावल और चूड़ा जरूर ले जाते हैं. दूरदराज में रहने वाले परिजन भी त्योहार व महत्वपूर्ण अवसरों पर अपने संगे-संबंधियों से उपहार के रूप में कतरनी चूड़ा व चावल की मांग करते हैं. इससे यह सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि भागलपुरी कतरनी की सुंगध व स्वाद के प्रति लोगों में कितना आत्मीय लगाव है.

नेहरू जी को भेंट किया गया था कतरनी चूड़ा
1952 में जब प्रथम प्रधानमंत्री पं जवाहर लाल नेहरू भागलपुर आये थे तो उन्हें तत्कालीन डीएम ने जगदीशपुर प्रखंड के एक किसान के घर ढेकी में तैयार किया गया कतरनी चूड़ा भेंट किया था. जिससे इस उत्पाद की अहमियत अतीत के आइने में भी झलकती है. इसी के साथ देश के नामचीन नेता और शख्सीयत हैं जो बिहार के इस स्वाद के खासे दीवाने रहे हैं.